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५. सामान्य व विशेष
तत्व परिचय
किया जाना सम्भव है । और एक अविभाग प्रतिच्छेद उसका विषेश है । इन दोनों के मध्य में हीनाधिक ज्ञान की प्रगटता की भाति अनेकों अवान्तर सामान्य व विशेष भावों की कल्पना की जा सकती है ।
६. द्रव्य सामान्य
द्रव्य क्षेत्र काल व भाव चारों मे ही इस प्रकार सामान्य व विशेषपना देखा जा सकता है । तहा सामान्य चतुष्टय से सहित द्रव्य या सत् सामान्य द्रव्य या सत् कहा जाता है और विशेष चतुष्टय से युक्त द्रव्य या सत् विशेष द्रव्य या सत् कहा जाता है । अवान्तर चतुष्टय से युक्त द्रव्य या सत् अवान्तर सामान्य या विशेष द्रव्य या सत् कहा जाता है ।
नयों का कथन समझने के लिये सामान्य तथा विशेष की व्याख्या ध्यान मे रखनी अत्यन्त आवश्यक है, क्योकि बहुत आगे जाकर नयो के मूल व उत्तर भेदो के लक्षण आदि करते समय 'सामान्य व विशेष यह दो शब्द ही प्रमुखत' प्रयुक्त करने मे आयेगे । जैसे कि सामान्य सत् या सामान्य द्रव्य की ही सत्ता को स्वीकार करके विशेष द्रव्य की सत्ता को गौण करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और केवल विशेष द्रव्य या सत् द्रव्य की सत्ता को स्वीकार करके सामान्य सत्ता को गौण करनेवाला पर्यायार्थिकय नय है । तहा भी द्रव्यर्थिक नय के दो भेद हे शुद्ध व अशुद्ध । महासत्ता रूप प्रथम सामान्य की ही सत्ता को स्वीकार करे - सो शुद्ध द्रव्यार्थिक है, और अवान्तर सामान्यों की सत्ता को स्वीकार करे सो अशुद्ध द्रव्यार्थिक है । महा सत्ता एक ही है, अतः उसको विषय करने वाला शुद्ध द्रव्याथिक भी एक ही है । अवान्तर सत्ता अनेक है अतः उसको विषय करने वाले अशुद्ध द्रव्यार्थिक भी अनेक है । इसी प्रकार पर्यायार्थिक नय भी दो प्रकार है— शुद्ध व अशुद्ध । एक अन्तिम विशेष का ग्राहक शुद्ध पर्यायार्थिक नय एक है और अवान्तर विशेषो का ग्राहक अशुद्ध पर्यायार्थिक अनेक भेदरूप है |