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६.द्रव्य सामान्य
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२. द्रव्य व उसके अंगोका परिचय
है । इस लिये वस्तु में इसकी स्थिति सर्वत्र तो मिल सकती है पर सर्वदा नही। यही गुण व पर्याय मे अन्तर है वह तो वस्तु में सर्वत्र व सर्वदा पाया जाता है, और यह सर्वत्र रहते हुये भी सर्वदा नही रहती । सर्वत्र तो इसलिए रहती है कि यह गुण का विशेष अंग है, और अपने अपने गुण मे व्याप कर रहती है । और क्योकि गुण सर्वत्र व्याप कर रहता है, इसलिये यह भी सर्वत्र व्याप कर रहती है, जैसे कि आम के गध की सुगधित पर्याय सारे आम मे व्याप्त होकर रहती है। पर सर्वदा नही रहती, बदल जाती है, बदल कर जो भी प्रकट होती है वह भी सर्वत्र ही रहती है पर सर्वदा नही । एक समय मे एक गुण की एक ही पर्याय रह सकती है दो नही । जैसे जब रस खट्टा है तो मीठा पना वहा नही रह सकता।
७. उपरोक्त सर्व वक्तव्य पर से भली भांति समझा जा सकता है कि यदि वस्तु को अनुभव करने जाये तो उस समय उसमे उतनी ही पर्याय दिखाई देंगी जितने कि गुण । या कल वाले शिक्षण मे पढ़े तो यो कहिये कि त्रिकाली वस्तु के कुल ३० अंगो मे से केवल ६ अंग ही साक्षत दृष्ट हो सकेंगे । ३० के ३० अंग हर समय वस्तु मे नही रहते । जब 'क' मे न. १ वाला अग दृष्ट होगा तो उसके साथ रहने बाले 'ख' आदि गुणो के न . ६ ११, १६, २१, २६, यह अग ही दृष्ट हो सकेगे । अर्थात् एक लाइन में दिखाये गये, छ: अग ही एक समय में दृष्ट हो सकेगे। अगले समय मे २, १२, १७, आदि दृष्ट हो सकेगे उपर नीचे वाले कोई भी अग वस्तु मे साथ एक नही देखे जा सकते है । परन्तु ज्ञान की विचित्रता है कि उसमे यह ३० के ३० अंग एक साथ देखे जा सकते है । वस्तु और ज्ञान के अनुभव मे यह अन्तर ही वास्तव मे वादविवाद या दृष्टियों की विभिन्नता का कारण बन जाता है । देखो यदि आप अपने जीवन पर दृष्टि डाल कर देखें तो आपको बाहर से अपने को देखने पर तो वर्तमान की यह प्रौढ अवस्था ही दिखाई देती है और इस संबंधी ही अनेको बाते ।