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________________ भक्ति तो भीतर से स्वत: उमड़ती है, परिस्थति-वश नहीं की जाती। मूलतः यह श्री आदिनाथ-स्तोत्र है, पर प्रारंभ में भक्तामर'' होने के कारण इसका प्रचलित नाम भक्तामर स्तोत्र है। यह कृति आदर्श- भक्ति का अनूठा उदाहरण है, रोम-रोम को झंकृत करनेवाली (iv) सकता है? तात्पर्य यह है कि उच्चकोटि का ज्ञान एवं आचारण होते हुए भी यदि प्रगाढ़ भगवद्भक्ति न हो तो निर्वाण असंभव है। गुणानुरागी, गुणी से प्रेम न करे, यह असंभव है। यदि भक्ति निष्काम होगी, तो चमत्कार को नमस्कार नहीं, किन्तु नमस्कार में चमत्कार होगा! अध्यात्म के प्रखर उद्घोषक आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैंजिणवरचरणंबुरुहणमंति जे परम-भत्ति-राएण। ते जम्म-वेलि-मूलं खणंति वर-भाव-सत्येण ।।153 ॥(भाव-पाहुड) अर्थ :- जो भव्य प्राणी उत्कृष्ट भक्ति-संबंधी अनुराग से जिनेन्द्र-प्रभु के चरण-कमलों को नमस्कार करते हैं, वे उत्तम भावरूपी शस्त्र द्वारा संसाररूपी लता की जड़ खोद डालते हैं। विद्वत् शिरोमणि आचार्य वीरसेन स्वामी का कथन हैजिण-पूजा-वंदण-णमंसणेहि य बहु-कम्म-पदेस-णिजरुवलंभादो। अर्थ :- जिन-पूजा, वन्दना और नमस्कार के द्वारा भी बहुत कर्म-प्रदेशों की निर्जरा का लाभ होता है। अरहत-णमोक्कारो संपहिय-बंधादो असंखेज-गुण-कम्मक्खय-कारओ त्ति तत्थ विमुणीणं पवुत्ति-पसंगादो। अर्थ :- अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यात गुनी कर्म-निर्जरा का कारण है, अत: उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति प्रासंगिक है। (जयधवला पु.1 पृ.8) स्वामी समन्तभद्रादि के दृष्टान्त अरहंत-नमस्कार की महिमा के समर्थक हैं। भक्त और भगवानरूपी तटों को जोड़नेवाला सेतु भक्ति ही है। इसी से नाम-स्मरण, गुण-स्तवन या पूजन में प्रवृत्ति होती है। भक्ति के मिष से होनेवाला भावावेश का अतिरेक भगवान् के सुन्दर स्वरूप को यथावत् नहीं रहने देता है। भगवान् आदिनाथ के स्तोत्र का उद्भव जैन-जगत् में सर्वमान्य तथा स्तोत्र-साहित्य में महती प्रतिष्ठा को प्राप्त भक्तामर स्तोत्र का नाम किसने नहीं सुना? संयत उद्गारों से की गई आदि-तीर्थंकर की यह स्तुति सबके मन को प्रभावित करती है। आचार्य मानतुझ स्वामी के पवित्र हदय से प्रस्फुटित यह भावभीनी रचना प्रभु-भक्ति से ओत-प्रोत है तथा सरसता, गंभीरता एवं पद-लालित्य की छटा से परिपूर्ण है। ऐसी विश्रुति है कि बेड़ियों से बँधे और कारागार में डाले गये आचार्यश्री इसके प्रभाव से स्वयं बन्धन-मुक्त हुए थे तथा इस अतिशय से प्रभावित होकर पक्ष-विपक्ष सभी गुरु चरणों में नम्रीभूत हुए थे । तब एक ऐतिहासिक धर्म-प्रभावना की घड़ी उपस्थित हुई थी। स्तुति के प्रभाव से लोह या मोह की बेड़ियाँ तो टूट सकती हैं, पर कारागार से मुक्ति पाने के लिये एक निर्ग्रन्थ श्रमण (दिगंबर साधु) स्तुति करे, यह बात आश्चर्यजनक है। बेड़ियाँ तोड़ने के अभिप्राय की झलक पूरे स्तोत्र में कहीं भी नहीं मिलती। अष्टम काव्य में स्तोत्र निर्माण का उद्देश्य पाप-क्षय को बतलाया है तथा पञ्चम, षष्ठ एवं अड़तालीसवें काव्य में भक्ति-भाव को ही इसका प्रमुख हेतु बतलाया है। वीतराग मुनि, वीतराग प्रभु की सकाम-भक्ति कैसे करे? भक्तामर का रचनाकाल इस विषय में विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के उपलब्ध अभिमत अवलोकनीय हैं। कुछ उदाहरण यथासंभव प्रस्तुत किये जाते हैं 1. राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित डॉ. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य ने आदिपुराण (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन) की प्रस्तावना के पृ. 11 पर स्तोत्रकार को 7 वीं शती ई. का स्वीकार किया है। 2. जैन दर्शनाचार्य एवं साहित्याचार्य पं. अमृतलाल जैन शास्त्री के अभिप्रायानुसार राजा हर्षवर्धन का काल ही आचार्य मानतुङ्गका काल है। (दे. भक्तामर स्तोत्रम्, राजविद्या मन्दिर प्रकाशन 1 वाराणसी, पं. अमृतलाल शास्त्री की प्रस्तावना पृ. 6) 3. पं. मिलापचन्द एवं रतनलाल कटारिया ने जैन निबन्ध रलावली में उक्त काल का ही उल्लेख किया है। 4. राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा सम्मानित स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री (जैन ज्योतिषाचार्य) आरा वालों ने अपने निबंध कवीश्वर मानतुङ्ग में लिखा है "भोज का राज्य-काल 11 वीं शताब्दी है, अतएव भोज के राज्यकाल में बाण और मयूर के साथ मानतुंग का साहचर्य कराना संभव नहीं है। आचार्य कवि मानतुङ्ग के भक्तामर स्तोत्र की शैली मयूर और बाण की स्तोत्र-शैली के समान है। अतएव भोज के राज्य में मानतुज ने अपने स्तोत्र की रचना नहीं की है। भक्तामर स्तोत्र के आरंभ करने की शैली पुष्पदंत के शिव-महिम्नि-स्तोत्र से प्रायः मिलती है। प्रातिहार्य एवं वैभव-वर्णन में भक्तामर पर पात्रकेसरी-स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । अतएव मानतुज आचार्य का समय 7 वीं शती है। यह शती मयूर, बाणभट्टादि के चमत्कारी स्तोत्रों के लिये प्रसिद्ध भी 5. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने अपनी पुस्तक जैना सोर्सेज ऑफ दी हिस्टरी ऑफ एन्शियेन्ट इन्डिया (दिल्ली 1964 पृ. 169-170)में स्तोत्रकार का काल 7 वीं शती ई. निर्धारित किया है "एक वीरदेव क्षपणक नामक दिगम्बर मुनि का भी हर्षवर्धन (606-647 ई.)के समय बाण का मित्र होना पाया जाता है। संभव है मानतुङ्ग आचार्य उक्त वीरदेव के शिष्य या गुरु रहे हों। धनञ्जय के भी वह गुरु हो सकते हैं। अतएव भक्तामरकार मानतुङ्ग मुनि का समय लगभग 600-650 ई. माना जा सकता है।"
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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