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Religion and Culture of the Jainas by Dr. Jyotiprasad Jain. Ch. III. p.26, History of Jainism after Mahavira...
The Emperor Harsha (607-647 A.D.), though a Buddhist, was tolerant towards the Jainas and patronised Manatunga, a Jain saint.......
6. डॉ. भोलाशंकर व्यास संस्कृत कवि-दर्शन में लिखते हैं
बाण के अतिरिक्त अन्य कई कवि हर्ष की सभा में विद्यमान थे सूर्य-शतक या मयूरशतक के रचयिता मयूर कवि तथा भक्तामर स्तोत्र नामक स्तोत्र- त्र-काव्य के कर्ता मानतुङ्ग दिवाकर भी बाण के साथ हर्ष की राज सभा में थे।" (संस्कृत कवि दर्शन पृ. 483-484) 7. इतिहासवेत्ता पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने सिरोही का इतिहास नामक ग्रन्थ में स्तोत्रकार को हर्षकालीन माना है।
8. डॉ. ए.वी. कीथ ने संस्कृत साहित्य के इतिहास विषयक (A history of Sanskrit literature- 1941-p.214-215) पुस्तक में स्तोत्रकार को बाण कवि के समकालीन स्वीकार किया है।
9. प्रो. विण्टरनित्स ने History of Indian literature II में आचार्य श्री को क्लासिकल संस्कृत युग (7 वीं शती ई.) का अनुमानित किया है।
10. भक्तामर एवं कल्याण मन्दिर स्तोत्र के जर्मन भाषानुवादक यूरोपीय प्राच्यविद डॉ. हर्मन जैकोबी (1876 ई.) का भी इसी ओर झुकाव रहा है।
भक्तामर - रहस्य के प्रारंभिक पृष्ठों पर डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन के सामग्री- प्रचुर लेख आविर्भाव में स्तोत्र - विषयक विभिन्न अवतरण कथाओं का सुंदर संग्रह संक्षिप्तरूप से उद्धृत है। जैकोबी, विण्टरनित्स, पं. दुर्गाप्रसाद आदि प्राच्यविद और अनेक जैन विद्वान भी प्रायः इसी मत के हैं कि उक्त कथानकों में नाम, स्थान एवं काल इतने अंतर को लिये हुए हैं कि उनकी ऐतिहासिकता विश्वसनीय नहीं है। नाम समयादि विषयक पारस्पारिक विरोध यह सूचित करता है कि उक्त कथानकों का कोई ठोस ऐतिहासिक आधार नहीं था। डॉ. हर्मन ने तो यहाँ तक कह दिया, 'भक्तामर तो स्वयं ऐसा अमूल्य रत्न है जिसे चमकाने के लिये उसे काल्पनिक कथानकों की खोटी धातु में जड़ने की आवश्यकता ही नहीं है।"
भक्तामर की पद्य संख्या
दिगम्बर मान्यतानुसार इसमें अड़तालीस पद्य हैं। श्वेताम्बर आम्नाय भी प्रायः इसे ही मान्यता देता है, पर मन्दिर मार्गी श्वेताम्बर 32-35 वें पद्यों को छोड़ 44 पद्यों का पाठ करते हैं। सं. 1334 के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्र सूरि द्वारा रचित प्रभावक-चरित में गर्भित 169 पद्यप्रमाण मानतुङ्ग प्रबन्ध में स्तोत्रकर्ता की कथा आयी है। राजा ने उन्हें 44 बेड़ियों में जकड़वा कर कारागार में डलवाया और वे स्तोत्र पाठ द्वारा क्रमशः उनसे मुक्त हुए। 48 तालों की प्रसिद्धि दिगम्बराम्नाय में है। निर्णयसागर प्रेस से मुद्रित सप्तम गुच्छक के संपादक ने टिप्पणी में 44 पद्यों को ही मान्यता देते हुए उक्त 4 पद्यों की भाषा-शैली को मूल से भिन्न बतलाकर प्रक्षिप्त
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कहा है, तथापि उन्होंने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये यह बतलाने का कष्ट नहीं किया कि वह शैली-भेद कहाँ है ? अस्तु ।
श्री अगरचन्द्र नाहटा का आग्रह है कि श्वेताम्बर - परम्परा सम्मत 44 श्लोकीय पाठ ही मूल एवं प्राचीनतम पाठ है (अगरचंद नाहटा भक्तामर के 4-4 अतिरिक्त पद्य शोधांक- 29, पृ. 199-202)। इसके अतिरिक्त 4 अन्य पद्य भी किन्हीं प्राचीन प्रतियों में अधिक प्राप्त होते हैं। लगभग 4 प्रतियों में परस्पर भिन्न 4 पद्य अधिक हैं
1. अनेकान्त, वर्ष 2, किरण 1 में प्रातिहार्यों की पुनरुक्ति है।
2. जैनमित्र फाल्गुन शु. 6, वी. नि. संवत् 2486 में पाठ का फल हैं।
3. श्री तिलकधर शास्त्री लुधियाना की 1870 की प्रति में बीजककाव्य शीर्षक से 4 काव्य हैं।
4. चतुर्थ चतुष्क "मानतुंगीय काव्य चतुष्टयी” Bhandarkar Institute, Pune में प्रातिहार्यो की पुनरुक्ति है।
उपरोक्त चार काव्य निम्नांकित हैंनातः परः परमवचोभिधेयो,
1.
लोकत्रयेऽपि सकलार्थविदस्ति सार्वः । उच्चैरितीव भवतः परिघोषयन्त
स्ते दुर्गभीरसुरदुन्दुभयः सभायाम् ॥ 1 ॥
वृष्टिर्दिवः सुमनसां परितः पपात,
प्रीतिप्रदा सुमनसां च मधुव्रतानाम् । राजीवसा सुमनसा सुकुमारसारा,
सामोदसम्पदमदाजिन ते सुदृश्यः ॥ 2 ॥ पूष्मामनुष्य सहसामपि कोटिसंख्या
भाजां प्रभाः प्रसरमन्वहया वहन्ति । अन्तस्तमः पटलभेदमशक्तिहीनं,
जैनी तनुद्युतिरशेषतमोऽपि हन्ति ॥ 3 ॥ देव त्वदीय सकलामलकेवलाय,
बोधातिगाधनिरुपप्लवरत्नराशेः ।
घोषः स एव इति सज्जनतानुमेते,
गम्भीरभारभरितं तव दिव्यघोषः ॥ 4 ॥
"इन श्लोकों के विषय में यदि क्षणभर विचार किया जाय तो चारों श्लोक भक्तामर स्तोत्र के लिए व्यर्थ ठहरते हैं, क्योंकि इन श्लोकों में क्रमशः दुन्दुभि, पुष्पवर्षा, भामंडल तथा दिव्यध्वनि इन चार प्रातिहार्यो को रखा गया है। अतः ये चारों श्लोक भक्तामर स्तोत्र के लिए पुनरुक्ति के रूप में व्यर्थ ठहरते हैं।” प्रथम काव्य के प्रथम चरण में दो अक्षर न्यून हैं।
"जैन मित्र" फाल्गुन सुदी 6 वीर सं. 2486 के अंक में भी इनसे भिन्न चार श्लोक छपे हैं