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| धर्म ही शरण
योग्य है। श्रावकों से निवेदन है कि “धर्म ही शरण" इसका गौर से अध्ययन करें, समझें और फिर पठन करें। इस चातुर्मास में महाराजजी ने हमें सतत् चार माह अथक परिश्रम लेते हुये व्याकरण, पठन, उच्चारण संबंधी नियमों से अवगत कराया और सही दिशा में भक्तिमार्ग दिखाया है। वे यथार्थ में एक अधिकारी व्यक्ति हैं। उन पर उनके दीक्षागुरु प.पू. आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की गहरी छाप है। उनकी साधना एवं इस समाज के प्रति उनका समर्पण एक अनन्य उदाहरण है। उनका हम अल्पसा भी अनुसरण करें तो निश्चित ही हमें अपने ध्येय में सफलता प्राप्त होगी, यह तय है। हम उनके सर्वदा ऋणी हैं और रहेंगे।
भवदीय
सुभाष कपूरचंद जैन
भौतिक चकाचौंध से प्रभावित आधुनिक मानव संकटमुक्त नहीं दीख पड़ता। उसका हृदय आतंकित और चित्त अशांत है। ऊपरी जीवन में समृद्धि होने पर भी भीतर एक खालीपन प्रतीत हो रहा है। स्मृति और आशा की खींचातानी में मन पल भर के लिए भी निस्तरंग नहीं बन रहा। इन्द्रिय-सुखों की विपुलता एवं परिग्रह का अधिकाधिक संचयन पराधीनता को बढ़ाने में ही सहायक हुआ है। समूचा जीवन प्राय: परिस्थितियों से जूझते हुए व्यतीत हो रहा है। जटिलता के साथ चिंताएँ भी सतत् वृद्धि पा रही हैं। अन्तस् त्राहि-त्राहि कर रहा है और काया अल्सर, रक्तचाप आदि व्याधियों से पीड़ित हो रही है। चैन की श्वास लेना भी अब दुष्कर लग रहा है। संघर्षों से त्रस्त एवं तनावों से ग्रस्त मन अशांति की जड़ को पकड़ नहीं पा रहा है।
समस्या अत्यंत विकट है; किन्तु जब वैज्ञानिक भी समाधान देने में पूर्णत: सफल नहीं हो पाते, तब निराशा के बादल मँडराने लगते हैं। मनुष्य अन्ततः हताश हो उठता है और मनोमंजन से अपरिचित होने के कारण मनोरंजन के नये-नये आविष्कार करता है। जवानी प्राय: व्यसनों में और बुढ़ापा डॉक्टर की फीस चुकाते हुए व्यतीत हो जाते हैं। बचपन में कुसंगति से हानि उठानी पड़ती है। सिनेमा और टी.वी. के दुष्परिणामों से अपरिचित कौन है? इस प्रकार सर्वत्र असंतुलन ही असंतुलन छाया हुआ है। आज पूर्ण नीरोग कौन है? प्रायः सभी मनुष्य मानसिक तनाव से होनेवाली किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त हैं। चमकदमक केवल ऊपरी है, अंदर से मनुष्य खोखला हो चुका है। फिर भी आज विश्व, स्पर्धा के कारण व्यग्र हुआ जा रहा है।
चित्त को भाररहित बनाने के लिए विभिन्न धर्म यथासंभव मार्गदर्शन देते हैं। सनातन धर्म ने श्रद्धा, इस्लाम ने भाईचारा, सिक्खमत ने गुरुभक्ति, ईसाई धर्म ने सेवा-भाव, यहूदी धर्म ने सत्प्रेम, बौद्ध-धर्म ने करुणा, पारसी धर्म ने पवित्रता, अनीश्वरवाद ने आत्म-निर्भरता, आर्य समाज ने विवेक और जैन-धर्म ने अहिंसा के साथ इन सबका प्रशस्त मार्ग दर्शाया है। कर्तव्यनिष्ठा, नि:स्वार्थ सेवा और परोपकार वास्तव में प्रशंसनीय हैं। दूसरों के शोषण से अपना पोषण करना मानवता के विरुद्ध है। सभी धर्म मानव को बुराइयों से दूर हटाकर सद्भावनापूर्ण जीवन की ओर प्रेरित करते हैं। लेकिन आज इन्हें सुनकर अपनाने का समय किसके पास है? दिन प्रतिदिन व्यस्तता बढ़ रही है। कृत्रिमता के इस युग में सादगी का दर्शन कठिन हो गया है। विचार करने पर यही समझ में आता है कि मनुष्य का अप्राकृतिक जीवन ही अशांति का एक प्रमुख कारण है।
इस शरण-विहीन स्वार्थपूर्ण संसार में मनुष्य प्रायः किसी अदृश्य शक्ति पर आशाभरी दृष्टि डालता है और क्लेश-मुक्ति के लिए उसकी उपासना भी करता है। भारत के विभिन्न संप्रदाय इसी परंपरा का अनुकरण करते हैं। दुर्भाग्यवश अधिकांश देशवासी धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि को परस्पर सर्वथा निरपेक्ष समझ अंधश्रद्धा के चक्र में उलझकर चमत्कार को ही धर्म मानते हैं।