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मनोगत
सामान्य गृहस्थ की जीवनचर्या कुछ ऐसी होती है कि वह अपने सांसारिक प्रपंचों में ही अत्यधिक उलझा रहता है। इस कारण उनकी प्रवृत्ति निरंतर सदोष बनी रहती है। शास्त्रों में साधुओं के अलावा गृहस्थों के लिए भी कृतिकर्म करने का उपदेश किया गया है।
जिस अक्षरोच्चारणरूप वाचनिक क्रिया के, परिणामों की विशुद्धिरूप मानसिक क्रिया के एवं नमस्कारादि स्वरूप कायिक क्रिया के करने से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों का छेद होता है उसे कृतिकर्म कहा गया है। इसमें पंच-परमेष्ठी पूजा एवं स्तुति का समावेश है। यह कर्मों की निर्जरा का कारण है एवं उत्कृष्ट पुण्यसंचय का हेतु भी है और विनयगुण का मूल भी है। ___ कृतिकर्म का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है। इसीलिए भक्ति करते समय पंच परमेष्ठियों का ही आधार लिया जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि भक्ति के कार्य, बिना राग के नहीं होते हैं, और राग संसार का कारण है, अत: इन्हें आत्मशुद्धि में प्रयोजन कैसे माना जाय? इस पर हमारी मान्यता यह है कि जब तक सराग अवस्था है, तब तक जीवों के राग की उत्पत्ति होती ही है। यदि यह लौकिक प्रयोजन के लिए है, तो इससे संसार भ्रमण होगा। किन्तु अरहन्तादि स्वयं राग द्वेष से रहित होते हैं। अत: लौकिक प्रयोजन से इनकी पूजा-भक्ति नहीं की जा सकती। इसीलिए इनकी भक्ति आदि के निमित्त से होनेवाला राग मोक्षमार्ग का प्रयोजक होने से प्रशस्त माना गया है।
मूलाचार में कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव की भक्ति करने से पूर्व-संचित कर्मों का क्षय होता है। आचार्यों के प्रसाद से विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। ये संसार तारने के लिए नौकास्वरूप हैं। अरहंत, अहिंसा धर्म, द्वादशांगवाणी, आचार्य, उपाध्याय और साध इनके अभिमुख होकर जो विनय और भक्ति करते हैं, उन्हें सब अर्थों की सिद्धि होती
परम्परा का सूर्य अस्त होनेवाला है। इस भय से उन्होंने दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। इस लेख में निहित श्री धरसेनाचार्यजी के अभिप्राय को समझकर उन । आचार्यों ने ऐसे दो साधुओं को आ. श्री धरसेन के पास भेजा जो ग्रहण-धारण में समर्थ, विनीत, शीलगुण सम्पन्न, देश कुल जाति से शुद्ध और समस्त कलाओं में पारंगत थे। ये दोनों साधु विधिवत् विहार करते हुये आचार्य श्री धरसेन के निकट गिरनार पहुँचे। दोनों साधुओं ने आ. श्री धरसेन के पास जाकर निवेदन किया, "भगवन् । अमुक कार्य से हम आपके चरणों में आये हैं।" आचार्य श्री ने "सुष्ठ भद्रं" कहकर उन्हें आश्वस्त किया। यद्यपि पूर्व में ही एक स्वप्न देखने से उनके विषय में विश्वास होते हुये भी, यथेच्छ प्रवृत्ति करने वालों को ही विद्यादान संसार को बढ़ाने वाला होता है, यह सोचकर उनकी परीक्षा लेना उचित समझा।
इसके लिये उन्होंने उनके लिए दो विद्यायें, जिनमें एक अधिक अक्षरवाली और दूसरी हीन अक्षरवाली थी, दी और कहा कि इन्हें षष्ठोपवास के साथ सिद्ध करो। तदनुसार विद्याओं के सिद्ध होने पर अलग-अलग दो विद्यादेवियाँ सिद्ध हुईं, जिनमें एक बड़े दाँतों वाली एवं एक कानी थी।
इस पर दोनों ने विचार किया कि देवताओं का स्वरूप तो ऐसा नहीं होना चाहिये। यह विचार करते हुये मंत्र एवं व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षरवाली विद्या में छूटे हुये अक्षर को जोड़कर और अधिक अक्षर वाली पंक्ति से उस अधिक अक्षर को निकालकर पुन: जाप किया। तब उन्होंने स्वाभाविक रूप में प्रकट विद्याओं को देखा।
इस घटना को विनयपूर्वक उन्होंने आचार्य श्री धरसेन मुनिराज से निवेदित किया। इस पर आचार्य श्री ने अत्यंत संतोष को प्राप्त कर उन्हें उचित तिथि, नक्षत्र एवं वार में ग्रन्थ को पढ़ाना आरंभ कर दिया। कालांतर में ये ही दोनों शिष्य भूतबलि एवं पुष्पदंत के नाम से जाने गये।
अपनी प्रस्तावना में इस घटना का उल्लेख एक विशेष प्रयोजन को लेकर प्रस्तुत है। लिपिज्ञान तो मानवजाति को भगवान आदिनाथ के समय से ही था, किन्तु धार्मिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान को श्रुतपरंपरा के लोप होने के भय से लिपिबद्ध करने का यह इस युग का पहला अवसर था। इस अवसर पर आचार्यों ने उपरोक्त घटना का शास्त्र में वर्णन करना अत्यंत जरूरी समझा। इसमें लिपिज्ञान का सारा मर्म समाविष्ट है। इस मर्म को यदि हम नहीं समझ सके तो हमारा लिखना और आपका पढ़ना दोनों ही व्यर्थ होगा।
इस पुस्तक में “धर्म ही शरण' में पू.क्षु. ध्यानसागरजी ने इस विषय में कुछ दिशानिर्देश दिये हैं। इस विषय में उनका अध्ययन बहुत गहरा है और प्रस्तुति प्रशंसा
अब भक्ति कैसी हो, इसके विषय में उपरोक्त कथन को थोड़ा-सा विराम देते हुये यहां एक शास्त्रोक्त उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। दिगम्बर जैन परम्परा में षट्खंडागम एक प्रमाणभूत परम-आगम ग्रंथ है। इसी ग्रंथ के लिपिबद्ध होने से जो मैं कहना चाहता हूँ वह घटना संबंध रखती है।
गिरनार पर्वत की चंद्रगुफा में स्थित आ. धरसेनजी अष्टांग-महा-निमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने उत्तरोत्तर क्षीण होते हुये श्रुत के प्रवाह को देखकर जाना कि कालांतर में इस