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पूर्विका
उनके ध्वन्यर्थ को अत्यंत सरल और उदाहरणों सहित रोचक ढंग से समझाया गया। पूज्य क्षुल्लक जी द्वारा किये गये भक्तामर जी के हिन्दी पद्यानुवाद और उसके सुमधुर कण्ठ से पारयण ने इस स्वर्णिम अवसर में सुगन्धि भरने का कार्य किया। पूज्य श्री के चुम्बकीय व्यक्तित्व के आकर्षण से सम्मोहित जनसमूह को पता ही नहीं चला कि 5 मई से श्रुत पंचमी 15 जून तक के 40 दिन कब और कैसे निकल गये।
अमर कृति "भक्तामर स्तोत्र'' के रचनाकार आचार्य मानतुंग स्वामी की ही एक अन्य रचना "नमिऊण स्तोत्र" जो अपेक्षाकृत कम प्रचारित-प्रसारित/अनुपलब्ध कृति है, को भी पूज्य क्षुल्लक जी के सरल सुबोध पद्यानुवाद सहित इस संकलन "मानतुंग भारती" में समाहित करके कृति का नाम सार्थक किया गया है। "नमिऊण स्तोत्र" भगवान चिन्तामणि पाश्वनाथ की प्राकृतभाषा में स्तुति है। इस कृति का हिन्दी पद्य में पठन-पाठन सुलभ हो जाने से यह सभी भक्तजनों के लिये कल्याणकारी सिद्ध होगी, ऐसी हमारी मान्यता और कामना है।
"मानतुंग भारती'' में उनके दोनों पद्यानुवादों को अपने पास संजोने सहलाने की अदम्य इच्छा से हमने उन्हें पुस्तकरूप में मुद्रित/प्रकाशित करने की आज्ञा-अनुमति के लिये निवेदन किया। पूज्य श्री ने वात्सल्यभाव से हमें अनुमति देकर हम पर अपूर्व उपकार किया।
शीघ्र से शीघ्र ही यह पुस्तक लोगों तक पहुंच सके इस दायित्वपूर्ण कार्य में समाज के इन सभी महानुभावों ने अपने सद्व्य का सदुपयोग किया।
शीघ्र मुद्रण तथा रुचिकर डिजाइनिंग के लिये मुद्रक ने हमारी सहायता की। विशेषकर "मंत्र" और स्तुति-काव्य में एक भी अक्षर या मात्रा कम या अधिक हो तो उसका वांछित परिणाम नहीं मिलता, फिर "भक्तामर जी" तो मंत्रशक्ति से परिपूर्ण स्तुति काव्य है। अत: उसे त्रुटिहीन बनाने के लिये सार्थक श्रम किया गया तथा समाज के सभी लोगों ने सार्थक सहयोग दिया।
समाज के उन सभी सज्जनों के हम हृदय से आभारी हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रकाशन में हमें सक्रिय सहयोग दिया। अंत में हम पूज्य क्षुल्लक जी के अहेतुकी कृपा के लिये हृदय से उपकृत अनुभव करते हुए उनके श्रीचरणों में त्रियोगपूर्वक इच्छामि निवेदन करते हैं।
इस कार्य में यत्किंचित् सफलता मिली हो तो उसका श्रेय गुरुकृपा को है और त्रुटियां सभी हमारी अपनी हैं। हम खुले हृदय से स्वीकार करते हैं। सुधीजनों के संशोधनों और सुझावों को हम प्रसन्नतापूर्वक स्थान देंगे।
प्रशस्त परिणामों की अभिव्यक्ति का नाम ही भक्ति है, अथवा यह कहें कि पूज्य-पुरुषों के गुणों के प्रति बहुमान का होना भक्ति है। भक्ति ही एक ऐसा माध्यम है जो भक्त और भगवान के बीच संबंधों में निकटता स्थापित करती है। जब भक्त भक्तिरस में निमग्न होता है तब वह द्वैत से अद्वैत की भावना में पहुँच जाता है। परमात्मा की उपासना करने वाले जैनाचार्यों एवं विद्वज्जनों ने भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र, विषापहार स्तोत्र, महावीराष्टक स्तोत्र आदि संस्कृत भक्ति-काव्यों का सृजन किया है, जो हमारी भावनाओं को निर्मल बनाते हैं।
इसी संदर्भ में क्षुल्लकजी ने इस पुस्तक में कुछ पद्यानुवाद लिखे हैं, जो कि बहुत सुन्दर, सरल और हृदयग्राह्य हैं। जब वे भक्तिरस में डूबकर अपने मधुर कण्ठ से गद्गद स्वर में पाठ करते हैं, तब वह पाठ बरबस ही श्रोताओं के मन को मोह लेता है एवम् पाठक के मन में वैराग्य-भावनाओं को जन्म दिए बिना नहीं रहता। क्षुल्लकजी के ऐसे प्रशस्त कार्य के लिए साधुवाद.....
ऐलक उदारसागरजी
गुरुचरण सेवक सकल दिगम्बर जैन समाज, भोपाल