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________________ ऐरावत-सम ऊँचा पूरा आगे को बढ़ता गजराज, नहीं डरा पाता उनको जो तव शरणागत हे जिनराज ! 13811 लहु से लथपथ गिरते उज्ज्वल गज-मुक्ता गज मस्तक फाड़, बिखरा दिये धरा पर जिसने अहो ! लगा कर एक दहाड़। ऐसा सिंह न करता हमला होकर हमले को तैयार, उस चपेट में आये नर पर, जिसे आपके पग आधार / / 3911 प्रलय-काल की अग्नि सरीखी ज्वालाओं वाली विकराल, उचट रही जो चिनगारी बन, काल सरीखी जिसकी चाल। सबके भक्षण की इच्छुक सी आगे बढ़ती वन की आग, मात्र आपके नाम-नीर से वह पूरी बुझती नीराग ! ||4011 कोकिल-कण्ठ सरीखा काला लाल-नेत्र वाला विकराल, फना उठा कर गुस्से में जो चलता टेढ़ी-मेढ़ी चाल। आगे बढ़ते उस विषधर को वह करता पैरों से पार, अहो ! बेधड़क जिसके हिय, तव नाम-नाग-दमनी विषहार / / 41 / / जहाँ हिनहिनाहट घोड़ों की जहाँ रहे हाथी चिंघाड़, मची हुई है भीषण ध्वनि जो कानों को दे सकती फाड़। वह सशक्त रिपु-नृप की सेना तव गुण-कीर्तन से तत्काल, विघटित होती जैसे रवि से विघटित होता तम विकराल / / 42 / / भालों से हत गजराजों के लहु की सरिता में अविलंब, भीतर-बाहर होने वाले योद्धा ला देते हैं कंप। उस रण में तव पद-पंकज का होता है जिनको आधार, विजय-पताका फहराते वे, दुर्जय-रिपु का कर संहार / / 43 / / जहाँ भयानक घड़ियालों का झुंड कुपित है, जहाँ विशाल, है पाठीन-मीन, भीतर फिर, भीषण बड़वानल विकराल। ऐसे तूफानी सागर में लहरों पर जिनके जल-यान, तव सुमिरन से भय तज कर वे, पाते अपना वांछित स्थान 14411 हुआ जलोदर रोग भयंकर कमर झुकी दुख बढ़ा अपार, दशा बनी दयनीय न आशा जीने की भी दिन दो-चार / वे नर भी तव पद-पंकज की, धूलि -सुधा का पाकर योग, हो जाते हैं कामदेव से रूपवान पूरे नीरोग / / 4511 जकड़े हैं पूरे के पूरे, भारी साँकल से जो लोग, बेड़ी से छिल गई पिण्डलियाँ, भीषण कष्ट रहे जो भोग। सतत आपके नाम-मन्त्र का, सुमिरन करके वे तत्काल, स्वयं छूट जाते बन्धन से, ना हो पाता बाँका बाल ||46 / / पागल हाथी, सिंह, दवानल, नाग, युद्ध, सागर विकराल, रोग जलोदर या बन्धन से प्रकट हुआ भय भी तत्काल / स्वयं भाग जाता भय से उस भक्त-पुरुष का जो मतिमान्, करता है इस स्तोत्र-पाठ से, हे प्रभुवर ! तव शुचि-गुण-गान / / 47 / / सूत्र बना गुण-वृन्द आपका, अक्षर रंग-बिरंगे फूल, स्तुति-माला तैयार हुई यह भक्ति आपकी जिसका मूल / मानतुंग जो मनुज इसे नित कंठ धरे उसको हे देव! वरे नियम से जग में अतुलित मुक्ति रूप लक्ष्मी स्वयमेव / / 48 / / विषयों में रुचि जगाने के लिये धर्मोपदेश नहीं है बल्कि मोक्षमार्ग में रुचि जगाने के लिये धर्मोपदेश है। धार्मिक कार्यों में प्रारंभ से लेकर अंतिम दशातक जितनी भी क्रियाये होती है, वे सब संसार से छूटने के लिये ही हैं। अरिहन्त पूजा, भक्ति, दान आदि प्रशस्त चर्या है। इसके द्वारा पुण्य / का संचय तो होता ही है. साथ-साथ क्रमश: यानि परम्परा से निर्वाण की प्राप्ति भी होती है। जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना, शील का पालन करना उपवास करना तथा सत्पात्रों को दान देना ये चारों धर्म श्रावकों के लिये नित्य करने योग्य कहे गये हैं। मुनि श्री समता सागर | * 77 78
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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