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तुम्हीं धीर! हो ब्रह्मा आतम हित की विधि का किया विधान तुम्हीं प्रगट पुरुषोत्तम भी हो हे भगवन् ! अतिशय गुणवान ||25|| दुखहर्ता हे नाथ! त्रि-जग के, नमन आपको करूँ सदैव, वसुन्धरा के उज्जवल भूषण नमन आपको करूँ सदैव । तीनों भुवनों के परमेश्वर, नमन आपको करूँ सदैव भव-सागर के शोषक हे जिन ! नमन आपको करूँ सदैव 112611
इसमें क्या आश्चर्य मुनीश्वर ! मिला न जब कोई आवास, तब पाकर तव शरण सभी गुण, बने आपके सच्चे दास । अपने-अपने विविध घरों में रहने का था जिन्हें घमंड, कभी स्वप्न में भी तव दर्शन कर न सके वे दोष प्रचंड 11271 ऊँचे तरु अशोक के नीचे नाथ विराजे आभावान, रूप आपका सबको भाता निर्विकार शोभा की खान । ज्यों बादल के निकट सुहाता बिम्ब सूर्य का तेजोधाम, प्रकट बिखरती किरणों वाला विस्तृत तन-नाशक अभिराम 112811 मणि-किरणों से रंग-बिरंगे सिंहासन पर निःसंदेह, अपनी दिव्य छटा बिखराती तब कंचन सम पीली देह नभ में फैल रहा है जिसकी किरण-लताओं का विस्तार, ऐसा रवि ही मानो प्रातः उदयाचल पर हो अविकार 112911 कुन्द - सुमन - सम धवल सुचंचल चौंसठ चँवरों से अभिराम, कंचन जैसा तव सुन्दर तन बहुत सुहाता है गुणधाम । चन्दा-सम उज्ज्वल झरनों की बहती धाराओं से युक्त, मानों सुर-गिरि का कंचनमय ऊँचा तट हो दूषण मुक्त 113011
दिव्य मोतियों के गुच्छों की रचना से अति शोभावान, रवि-किरणों का घाम रोकता लगता शशि जैसा मनभान आप तीन जगत के प्रभुवर हैं, ऐसा जो करता विख्यात, छत्र त्रय तव ऊपर रहकर शोभित होता है दिन-रात 11311
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गूँज उठा है दिशा-भाग पा जिसकी ऊँची ध्वनि गंभीर, जग में सबको हो सत्संगम इसमें जो पटु और अधीर । कालजयी का जय घोषक बन नभ में बजता दुन्दुभि वाद्य, यशोगान नित करे आपका जय जय जय तीर्थंकर आद्य ॥32॥ पारिजात, मन्दार, नमेरू, सन्तानक हैं सुन्दर फूल, जिनकी वर्षा नभ से होती, उत्तम, दिव्य तथा अनुकूल । सुरभित जल-कण, पवन सहित शुभ, होता जिसका मंद प्रपात, मानों तव वचनाली बरसे, सुमनाली बन कर जिन - नाथ! ॥33॥ विभो ! आपके जगमग जगमग भामंडल की प्रभा विशाल, त्रिभुवन में सबकी आभा को लज्जित करती हुई त्रिकाल । उज्ज्वलता में अन्तराल बिन अगणित उगते सूर्य-समान, तो भी शशि-सम शीतल होती, हरे निशा का नाम निशान 11341! स्वर्ग लोक या मोक्ष-धाम के पथ के खोजी को जो इष्ट, सच्चा धर्म स्वरूप जगत को बतलाने में परम विशिष्ट । प्रगट अर्थ-युत सब भाषामय परिवर्तन का लिये स्वभाव, दिव्य आपकी वाणी खिरती समवसरण में महाप्रभाव ||3511
खिले हुए नव स्वर्ण-कमल-दल जैसी सुखद कान्ति के धाम, नख से चारों ओर बिखरती किरण-शिखाओं से अभिराम । ऐसे चरण जहाँ पड़ते तव, वहाँ कमल दो सौ पच्चीस, स्वयं देव रचते जाते और झुकाते अपना शीश ॥36॥ धर्म देशना में तव वैभव इस प्रकार ज्यों हुआ अपार, अन्य किसी के वैभव ने त्यों नहीं कहीं पाया विस्तार । होती जैसी प्रखर प्रभा प्रभु ! रवि की करती तम का नाश, जगमग जगमग करने पर भी कहाँ ग्रहों में वही प्रकाश ? ॥37॥
मद झरने से मटमैले हैं हिलते डुलते जिसके गाल, फिर मँडराते भौरों का स्वर सुन कर भड़का जो विकराल ।
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