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________________ वे अणु भी बस उतने ही थे, तनिक अधिक ना था परिमाण, क्योंकि धरा पर, रूप दूसरा, है न कहीं भी आप समान ॥12॥ सुर-नर-नाग-कुमारों की भी आँखों को तव मुख से प्रीत, म जिसने जग की सारी सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ ली हैं जीत । और कहाँ चन्दा बेचारा जो नित धारण करे कलंक ? दिन में ढाक-पन्न सा निष्प्रभ, होकर लगता पूरा रंक ।।13।। पूर्ण-चन्द्र के कला-वृन्द सम धवल आपके गुण सब ओर, व्याप्त हो रहे हैं इस जग में उनके यश का कहीं न छोर। ठीक बात है जो त्रि-भुवन के स्वामी के स्वामी के दास, मुक्त विचरते उन्हें रोकने कौन साहसी आता पास ?11411 यदि सुरांगनाएँ तव मन में नहीं ला सकीं तनिक विकार, तो इसमें अचरज कैसा? प्रभु ! स्वयं उन्हीं ने मानी हार। गिरि को कंपित करने वाला प्रलयकाल का झंझावात, कभी डिगा पाया क्या अब तक मेरु-शिखर को जग-विख्यात?।।15।। प्रभो! आपमें धुंआ न बत्ती और तेल का भी न पूर, तो भी इस सारे त्रि-भुवन को आभा से करते भरपूर । बुझान सकती विकट हवाएँ जिनसे गिरि भी जाते काँप, अत: जिनेश्वर ! जगत-प्रकाशक अद्वितीय दीपक हैं आप ||1611 अस्त आपका कभी न होता राह बना सकता ना ग्रास, एक साथ सहसा त्रि-भुवन में बिखरा देते आप प्रकाश। छिपे न बादल के भीतर भी हे मुनीन्द्र ! तव महाप्रताप, अत: जगत में रवि से बढ़ कर महिमा के धारी हैं आप ||1711 रहता है जो उदित हमेशा मोह-तिमिर को करता नष्ट, जो न राहु के मुख में जाता बादल देते जिसे न कष्ट । तेजस्वी-मुख-कमल आपका एक अनोखे चन्द्र समान, करता हुआ प्रकाशित जग को शोभा पाता प्रभो ! महान ||1811 विभो! आपके मुख-शशि से जब, अन्धकार का रहा न नाम, दिन में दिनकर, निशि में शशि का, फिर इस जग में है क्या काम?|| शालि-धान्य की पकी फसल से, शोभित धरती पर अभिराम, जल-पूरित भारी मेघों का, रह जाता फिर कितना काम?||19।। ज्यों तुममें प्रभु शोभा पाता ! जगत-प्रकाशक केवलज्ञान, त्यों हरि-हर-आदिक प्रभुओं में, होता ज्ञान न आप समान । ज्यों झिलमिल मणियों में पाता तेज स्वयं ही सहज निखार, काँच-खंड में आ न सके वह हो रवि-किरणों का संचार ||2011 हरि-हरादि को ही मैं सचमुच, उत्तम समझ रहा जिनराज! जिन्हें देख कर हृदय आपमें, आनन्दित होता है आज । नाथ! आपके दर्शन से क्या ? जिसको पा लेने के बाद, अगले भव में भी ना कोई मन भाता ना आता याद 112111 जनती हैं शत-शत माताएँ शत-शत बार पुत्र गुणवान्, पर तुम जैसे सुत की माता हईन जग में अन्य महान् । सर्व दिशाएँ धरे सर्वदा ग्रह-तारा-नक्षत्र अनेक, पर प्रकाश के पुंज सूर्य को पूर्व दिशा ही जनती एक ।।2211 सभी मनीश्वर यही मानते, परम-पुरुष हैं आप महान, और तिमिर के सन्मुख स्वामी! हैं उज्जवल आदित्य-समान । एक आपको सम्यक् पाकर मृत्युंजय बनते वे संत, नहीं दूसरा है कोई भी मोक्षपुरी का मंगल पंथ ।।23।। अव्यय, विभु, अचिन्त्य, संख्या से परे, आद्य-अरहंत महान्, जग ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत-गुण, मदन-विनाशक अग्नि-समान । योगीश्वर, विख्यात-ध्यानधर, जिन! अनेक हो कर भी एक, ज्ञान-स्वरूपी और अमल भी तुम्हें संत-जन कहते नेक ।।2411 तुम्हीं बुद्ध हो क्योंकि सुरों से, पूजित है तव केवलज्ञान, तुम्हीं महेश्वर शंकर जग को, करते हो आनन्द प्रदान । 73 - 74
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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