SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (xii) अनेक संगीतमय कैसेट भी विभिन्न स्वरों में प्रचलित हैं। (भक्तामर-साहित्य संबंधी विशेष जानकारी के लिए देखें सचित्र भक्तामर रहस्य' में प्रकाशित प्रास्ताविक लेख आविर्भाव डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ) भक्तामर पाठ पाठ संबंधी विभिन्न विधियाँ उभय (दिगम्बर एवं श्वेताम्बर) संप्रदायों में प्रचलित हैं, जो कतिपय प्रकाशनों में दी गई हैं। नैमित्तिक पाठविधि, अखंड पाठविधि, तथा अन्य नियतकालिक विधियाँ अनेक भक्त संकल्पपूर्वक अंगीकार करते हैं। त्रैमासिक-पाठसंबंधी नियमावली 1. बन सके तो पद्मासन में, अन्यथा पालथी लगाकर स्थिर बैठे। 2. पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख हो। 3. पाठ के समय चित्त की एकाग्रता, हृदय का श्रद्धाभाव एवं शरीर-वस्त्रादि की पवित्रता अपेक्षित है। 4. स्तोत्र-पाठ केवल मध्य-दिवस और मध्य रात्रि के संधिकालों में वर्जित है, तथापि प्रात:काल सर्वोत्तम है, क्योंकि तब मन अधिक शांत रहता है। (अखंड-पाठ में अर्थात् निरंतर 24 घंटों के पाठ में संधिकाल बाधक नहीं है।) 5. पाठारंभ शुक्लपक्ष की पूर्णा तिथि (5,10 एवं 15)को करें। यदि ऐसा न हो सके, तो 1,3,6, 8, 11 और 13 को भी पाठ प्रारंभ किया जा सकता है। 6. गुरुमुख से श्रवण करके कण्ठस्थ करना उत्तम है। पश्चात् सविनय, गुरु-साक्षीपूर्वक नियम धारण करें। यदि योग न बने, तो देव और शास्त्रों की साक्षीपूर्वक नियम धारण करें। 7. पाठ के समय उच्चारण-शुद्धि का ध्यान रखें। 8. एक बार पाठ आरंभ करके उसे निरंतर चालू रखें। एकवर्षीय पाठ संबंधी नियमावली 1. दोपहर के पहले पाठ कर लें, सूर्योदय की बेला श्रेष्ठ है। 2. बैठक पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखें। 3. श्रावण, भाद्रपद, कार्तिक, मार्गशीर्ष (अगहन/मगसिर), पौष एवं माघ महीनों के शुक्लपक्ष की पूर्णा (5, 10,15) नन्दा (1, 6, 11) तथा जया (3,8, 13) पाठारंभ की श्रेष्ठ तिथियाँ हैं। 4. प्रारंभिक तिथि को एकाशन (एक बार आहार-जल) या उपवासपूर्वक व्यतीत करें और 24 घण्टे ब्रह्मचर्य का पालन करें। 5. सूतकपातक का विवेक रखें। ऋतुकाल में उच्चारण वर्जित है। नियम की अवधिपर्यन्त अभक्ष्य एवं व्यसनों से बचें। (xiii) नित्यपाठ संबंधी नियमावली 1. चैत्र, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ माह पाठारंभ के लिए वर्जित हैं। 2. शेष महीनों के शुक्लपक्ष की 1, 3, 5, 6, 10, 11, 13 एवं 15 तिथियाँ पाठारंभ के लिए मान्य तिथियाँ हैं। 3. जिनालय में श्रीजी के सम्मुख पाठ करना उत्तम है। अन्यत्र पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठे। पद्मासन में बैठे। 4. सूर्योदय के पूर्व पाठ करना उत्तम है, अन्यथा मध्याह्न के पूर्व पाठ कर लें। 5. विनय एवं आचरण शुद्धि का विवेक अनिवार्य है तथा श्रद्धा और स्थिरता भी अपेक्षित है। उच्चारण सामान्यतः उच्चारण-संबंधी निम्नलिखित निर्देश दृष्टव्य हैं 1. संयुक्ताक्षर के पूर्व यदि लघु अक्षर हो तो स्वराघातपूर्वक उच्चारण करें। दो या दो से अधिक व्यञ्जनों वाला अक्षर संयुक्ताक्षर कहलाता है। जैसे- क्ष- क् + ष त्र-त् + र ज्ञ-ज्+ज द्य - द् + य प्र = प् + र स्व = स् + व इत्यादि। स्वर अथवा स्वर-युक्त व्यञ्जन को अक्षर / वर्ण कहते हैं। संयुक्ताक्षर में आगत प्रथम व्यञ्जन के पिछले लघु वर्ण के साथ बलपूर्वक उच्चारित करना स्वराघात है। जैसे भक्त शब्द से भक् + त, विश्वास में विश् + वास, श्रद्धा में श्रद् + धा, विद्या में विद् + या, शिक्षक में शिक् + षक, लक्ष्य में लक् + ष्य, सप्रेम में सप् + रेम इत्यादि। 2. रेफ के नीचे वाले अक्षर को रुकते हुए उच्चारित करें। जैसे- दुन्दुभि वनति में दुन्दुभिर् पर अटक कर ध्वनति बोलें। रेफर है, उसे र बोलने से एक अक्षर बढ़ जाता है। अधिक विराम देने पर तालभंग होगा। 3. आगामी अक्षर का उच्चारणस्थान ही अनुस्वार का उच्चारणस्थान हो, जैसे संसार सन् सार, मंगल मङ्गल, चंचल चञ् चल, अंश अञ् श, कंप कम् प इत्यादि। 4. विसर्ग (:) का उच्चारण दीवार से टकरा कर लौटी हुई ह की ध्वनि के समान हो। 5. स, श एवं ष के शुद्ध उच्चारण का प्रशिक्षण अवश्य लें। 6. ज को ज़, फ को फ़, ड ढ को ढ़, ड़, द्य को ध्य या द्ध और मृ को प्रन बोलें।फ को दोनों ओठ मिला कर बोलें। 7. सहस्र को सहस्त्र, ज्ञान को ग्यान, प्रवृत्तः को प्रवर्त: या प्रवत्तः, क्षण को छण आदि उच्चारित न करें। 8. स्तोत्र, स्तुति, स्पष्ट आदि शब्दों के प्रारंभ में 'इ' न जोड़ें किन्तु स के उच्चारण स्थान पर
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy