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अब एक अन्य तर्क उठाया जा सकता है- आ. श्री ने प्रातिहार्य-संबन्धी 4 काव्यों में तथा कमल-रचना एवं वैभव-प्रशंसा-सबन्धी काव्यों में भवतः' और 'तव' शब्दों का ही प्रयोग किया, किन्तु मध्य में आगत इन 4 काव्यों में वे नहीं पाये जाते । 32-35 वें काव्यों में आया 'ते' शब्द शैली से विषम होने के कारण इन्हें प्रक्षिप्त (बाद में मिलाये गये) सिद्ध करता है। यदि पूर्वापर निरीक्षण करके विचारा जाये,तो यह सहज ही ज्ञात होगा कि ते शब्द स्तोत्रकार की शैली के बहिर्भूत नहीं है। प्रमाण स्वयं देखेंकस्ते क्षमः
पद्य 12 यत्ते समानमपरं पद्य 13 वक्त्रं क्व ते
पद्य 15 चित्रं किमत्र यदि ते पद्य 39 क्रम-युगाचल-संश्रितं ते
अत: 'ते' शब्द के कारण ये काव्य प्रक्षिप्त सिद्ध नहीं होते। यदि यह कहा जाये कि 'ते' शब्द वाले 4 पद्यों में प्रातिहार्य अधिक महत्वपूर्ण हैं, भगवान कम, अत: इस आधार पर शैलीभेद दृष्टिगोचर होने से वे प्रक्षिप्त ही हैं, तो विचारना पड़ता है कि ऐसा है क्या? शान्तचित्त से अवलोकन करने पर यही सिद्ध होता है कि उक्त काव्यों द्वारा आदि-प्रभु की महिमा ही दर्शायी गई है, प्रातिहार्यों की नहीं।
जर्मन अनुवादक ने संभवतः अनावश्यक जानकर युद्ध-संबंधी द्वितीय काव्य को प्रक्षिप्त समझ लिया। इस संभावना पर कुछ विचार किया जाता है। साहित्य का दोष होकर भी पुनरुक्ति धार्मिक-काव्यों में आपत्तिजनक नहीं है। इसी स्तोत्र में आचार्यश्री ने कुछ बातों को दोहराया है, जैसे
1. स्तोत्रकार ने लघुता-प्रदर्शन अनेक बार किया है।
2. स्तुति करने का भाव कई बार प्रकट किया है। माम 3. भक्ति को एक से अधिक बार स्तुति करने में प्रेरक बतलाया है।
4. जिन-दर्शन के आनंद को एक से अधिक पद्यों में प्रदर्शित किया है। व उपर्युक्त स्थलों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य स्थल मिल सकते हैं, जहाँ स्तुतिकर्ता ने एक विषय को एकाधिक बार प्रस्तुत किया हो। अत: उक्त काव्य को प्रक्षिप्त मानने का यह कोई ठोस आधार सिद्ध नहीं होता। यदि दो काव्यों में युद्ध-विषयक बात आ गई, तो आपत्ति नहीं मानी जा सकती। दूसरे काव्य की आवश्यकता इस रूप में भी स्वीकृत की जा सकती है कि पहले काव्य में तो शत्रु की विकट सेना का भेदन दर्शाया है और दूसरे में युद्ध की बीभत्स दशा के चित्रणपूर्वक विजय-प्राप्ति का दर्शन करया है। भाषा के आधार पर तो इसे प्रक्षिप्त कहना असंगत है।
उपान्त्य काव्य को पिष्ट-पेषण मानकर प्रक्षिप्त कोटि में रख दिया गया है, ऐसा जान पड़ता है। डॉ. हर्मन जैकोबी स्तोत्र के अध्येता हैं, अत: उन्होंने उक्त काव्यों को अकारण प्रक्षिप्त नहीं कहा। उपान्त्य पद्य में स्तोत्रकार द्वारा स्तोत्र-पाठ का फल-दर्शन भी संभवतः उन्हें खटका हो। एकसाथ 8 उपद्रवों का उल्लेख स्थूलत: उपसंहारात्मक एवं सूक्ष्मत: आध्यात्मिक भी हो सकता
है। यदि कदाचित् वैद्य अपनी दवा के गुण कह दे, तो क्या हानि है? प्राचीन आचार्यों ने भी ग्रन्थ स्वाध्याय का फल अपनी रचना के अंत में दिया है। उनका लक्ष्य सर्वदा धर्म-प्रभावना का रहा। लोकेषणा, आत्मज्ञ को कैसे इष्ट हो सकती है? यदि आचार्य मानतुङ्ग स्वामी की मानप्रतिष्ठा से नि:स्पृह छवि का स्मरण किया जाये, तो इस आशंका का सहज ही परिहार हो सकता है कि पूज्य श्री ने पाठ-फल क्यों दर्शाया? शैली और क्रम की विसंगति भी प्रक्षिप्त समझे गये इन काव्यों में दृष्टिगोचर नहीं होती।
यदि इन अष्ट उपद्रवों को उपान्त्य काव्य माना जाये, तो बड़ा ही सुन्दर भाव उपलब्ध हो सकता है
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम। तास्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते॥
(य: मतिमान्) जो तत्वज्ञ मनुष्य (तावकं इमं स्तवं) आपके इस स्तोत्र का (अधीते)पाठ करता है, (तस्य)उसका (मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थं भयं)मनरूपी मद-मत्त हाथी, कालरूपी सिंह, काम-क्रोधरूपी ज्वालामय दावाग्नि, विषयभोगरूपी विषधर, मोह-वैरी के संग्राम, संसार-समुद्र, तृष्णा रूपी जलोदर-रोग एवं स्नेहवैररूपी बन्धन से प्रादुर्भूत भय (आशु) तत्काल (नाशं उपयाति) विनाश को प्राप्त हो जाता है। (इव)मानो (भिया)भय से ही आक्रान्त हो गया हो।
अड़तालीस पद्यों के पश्चात् के काव्य-चतुष्क में प्रथम तो प्रातिहार्यों की पुनरुक्ति एवं छन्दोभंग युक्त है, द्वितीय अर्थ-विसंगति एवं रचना-वैषम्य से युक्त है तथा पाठ-फलपूर्वक स्तोत्र को समाप्त करता है। तृतीय चतुष्क में छन्दोभंगादि विसंगतियाँ स्पष्टत: दृष्टि-गोचर होती हैं, अत: 4 भिन्न प्रतियों में उपलब्ध कुल 16 काव्य मूल में सम्मिलित नहीं हो पाते। फलतः मनीषियों ने कुल 48 काव्य ही माने हैं और उनमें स्थानकवासी श्वेतांबराचार्य अमर मुनि (कविरत्न) तथा श्वेताम्बर साध्वी महासती उम्मेदकुँवर जी भी हैं, जिन्होंने स्वाध्याय-सुमन में 48 काव्यों को सार्थ दिया है। विद्वजन विशेष निर्णय करें।
भक्तामर वाड्मय सारगर्भित व सरस होने के कारण भक्तामर स्तोत्र जगत में अमर बन गया है। भक्त को अमर बनाने वाली यह रचना क्लिष्टकल्पना एवं अतिरिक्त साहित्यिक-पाण्डित्य से मुक्त होने के कारण मन पर बोझ नहीं डालती । देश विदेश की विभिन्न भाषाओं में समुपलब्ध गद्यपद्यमय अनुवाद इस स्तोत्र की लोकप्रियता को स्वयं प्रमाणित करते हैं। भक्तामर पर आधारित समस्यापूर्तियों की ही गणना लगभग 20-25 हैं। स्तोत्र की संस्कृत टीकाएँ भी अनेक हैं। भक्तामर पूजन, भक्तामरोद्यापन, भक्तामर ऋद्धिमंत्र, भक्तामर कथालोक, भक्तामर महामंडल विधान, भक्तामर स्तोत्र माहात्म्य आदि नाना रचनाएँ पिछले 1000 वर्षों में हुई हैं। आज लगभग शताधिक तो ऐसे पद्यानुवाद हैं जो प्रकाशित हैं। कुछ प्राचीन एवं अप्राचीन चित्रयुक्त प्रतियाँ समुपलब्ध हैं तथा