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प्रथम परिच्छेद ॥
(४७) किकस्वाभिमतार्थसिद्धये १) यथा श्री गुम्निायं (२) ध्यातव्यः ॥
श्रीमत्तपागणन(३,भस्तरो (४) विनेय श्रीमोमसुन्दरगुरोर्जिनकीर्ति मूरिः॥ म्वोपज्ञपञ्चपरमेष्ठिमहास्तवस्य वृत्ति व्यधाज्जलधिनन्दमनु[५]प्रभेऽन्दे (६)॥९॥
____ इति श्री नमस्कारस्तवः सम्पूर्णः ॥
इतिश्री जिनकी तिरिविरचित नमस्कारस्तववृत्तिः ॥ है दीपिका-प्रानुपूर्वी श्रादि ७] भङ्गों के गुगान का माहात्म्य [-] कहा है ॥२६॥२७॥२८॥२९॥३० ३११॥३२॥
यह श्रीपञ्चपरमेष्ठि मस्कार महामन्त्र है, सब समीहित पदार्थों की प्राप्ति के लिये इसकी महिमा कल्पवृक्ष से भी अधिक है, यह (महामन्त्र) शान्तिक और पौष्टिक आदि पाठ कार्यों को पूर्ण करता है, इस लोक और परलोक के अपने अभीष्ट [९] अर्थ की सिद्धि के लिये श्रीगुर्वानाय से इसका ध्यान करना चाहिये।
श्रीयुत तपागच्छ रूप आकाश में सूर्य के समान श्रीसोमसुन्दर गुरु के शिष्य जिनकीर्तिसूरिने संवत् १४९७ में श्री पञ्चपरमेष्ठि महास्तोत्रकी इस स्वो. पत्तवृत्ति को बनाया ॥ १ ॥
यह श्रीनमस्कारस्तव समाप्त हुआ ।
यह श्री जिनकीर्तसूरि विरचित स्वोपज्ञवृत्ति के गूढ़ आशय को प्रकाशित करनेवाली जयदयाल शर्मा निर्मित दीपिका नाम्नी भाषाटीका समाप्त हुई।
यह प्रथम परिच्छेद समाप्त हुभा ॥
१- ऐहिकानां पारलौकिकानाञ्च स्वाभीष्टानामर्थानां सिद्धये ॥२-श्रीगुर्वाम्नाय पूर्वकम् ॥३- गणोगच्छः ॥४- तपागच्छरूपे आकाशे मूर्यतुल्यस्य ॥५- जलधयः सप्त, नन्दानध, मनवश्च चतुर्दश, तेन १४६७ संख्या जाता, एतत्प्रमाणे ॥६- वर्षे ७- आदि शब्द से अनानुपूर्वी आदि को जानना चाहिये ॥४- महत्व ॥६-यांछिता
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