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________________ श्री राजगुणकलामहोदधि ॥ परमपदसम्पदर्थी जल्पति नवपदस्तुतमेतद् ॥३१॥ पञ्चनमस्कारस्तु तमेतत् स्वयं करोति संयतोऽपि ॥ यो ध्यायति लभते स, जिन कीर्तित महिमसिद्धि सुखम् (१) ॥३२॥ भाषार्थ- - इस प्रकार धानुपूर्वी (२) आदि भङ्गों को अच्छे प्रकार जान कर जो उन्हें भावपूर्वक प्रतिदिन गुणता है; वह सिद्धि सुखों को प्राप्त होता है ॥२६॥ जो पाप मासिक (३) और वार्षिक (४) तीब्र [५] तपसे नष्ट होता है वह पाप नमस्कारकी अनानुपूर्वी के गुणनेसेाधे क्षण में नष्ट हो जाता है ॥२१॥ जो मनुष्य सावधान मन होकर अनानुपूर्वी के सब ही भङ्गों को गुणता है वह प्रति रुष्ट (६) वैरियों से बांधा हुआ भी शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥२८॥ ( ४१ ) - इनसे अभिमन्त्रित श्री " श्रीवेष्ट" नामक वाससे शाकिनी और भूत आदि तथा सर्वग्रह एक क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं ॥२९॥ दूसरे भी उपसर्ग, (9) रोजा आदि के भय तथा दुष्ट रोग नवपदकी अनानुपूर्वीके गुणनसे शान्त हो जाते हैं ॥३०॥ तपगच्छ के मण्डन रूप श्री सोमसुन्दर गुरु के शिष्य ने परमपद रूप सम्पत्ति का प्रभिलाषी होकर इस नव पद स्तोत्र का कथन किया है ॥ ३९ ॥ इस पञ्च नमस्कार स्तोत्र को जो संयम में तत्पर होकर स्वयं करता है तथा जो इसका ध्यान करता है वह उन सिद्धि सुख को प्राप्त होता है कि जिसकी महिमा जिन भगवान् ने कही है ॥३२॥ स्त्रोपज्ञवृत्ति - अनुपूर्वीप्रभूतभङ्गगुणने माहात्म्यमाह [८] ॥२६॥२१॥२८॥ ॥२९॥३०॥३१॥३२॥ एष श्री पञ्चपरमेष्ठिनमस्कार महामन्त्रः सकल समीहितार्थप्रापणकल्पद्रमाभ्यधिकमहिमा, (c) शान्तिकपौष्टिकाद्यष्टकर्मकृत् (१०) ऐहिकपारलौ १- जिनैः कीर्तितः ( कथितः ) महिमा यस्य तत् एवम्भूत सिद्धिसुखम् ॥ २- आदि शब्द से अनानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी को जानना चाहिये || ३- छः महीने के ॥ ४ वर्ष भर के ॥ ५-उग्र, कठिन ॥ ६-अति क्रुद्ध ॥ ७-उपद्रव ॥ ८- महत्त्रम् ॥ १- सकलानां समीहितार्थानाम्प्रापणे कल्स्ट्रमादपि अभ्यधिको महिमा यस्य स तथा ॥ १०- शान्तिक पौष्टिकादीनामष्टानां कर्मणां साधकः ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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