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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ कृत्या उपरितन कोष्ठा गणने पञ्चकाक्रान्त स्थाने लब्धं शून्यम्, एवं चतुर्थपंक्तौ पञ्चकं पूर्वस्थितं मुक्त्वा चतुष्कमादौ दत्वा गणने चतुष्काक्रान्ते लब्धं शून्यम् , तृतीयायां प्रोक्तरीत्या (१) त्रिक्रमादौ दत्त्वा गणने लब्धं शून्यम्, एवं द्वितीयायामपि, प्राद्यपंक्तौ शेषमेककमादौ दत्त्वा गणने एकाक्रान्त कोष्ठे लब्ध एकः, ततः प्रथमोऽयंभङ्गः, एवमधस्तन कोष्ठ द् गणने [२] यथा ज्येष्ठमेककमादौ दत्त्वाऽधस्तनकोष्ठाद गणनेऽन्त्यपंक्तौ पञ्चकाक्रान्त कोष्ठे, चतुर्थ पंक्तौ चतुष्काक्रान्तकोष्ठे, तृतीयपंक्तौ त्रिकाक्रान्तकोष्ठ, द्वितीयपंक्तौ द्विकाक्रान्त कोष्ठ च लब्धानि शून्यानि, आद्यपंक्तौ लब्ध एक, ततः प्रथमोऽयम्भङ्गः एवं सर्वत्र ज्ञेयम् ॥२५॥
दीपिका-अब उद्दिष्ट की क्रिया को कहते हैं:
उद्दिष्ट[३]जो भङ्ग है, उसके जो नमस्कार पदाभिज्ञान रूप अङ्क एक दो तन और चार प्रादि[४]हैं, तत्प्रमाण अर्यात् तत्संख्या वाले अर्थात् उतने जो कोष्ठ हैं; उनमें जो अङ्क अर्थात् परिवर्ताङ्क हैं; उन सबको एकत्र मिला देने से उद्दिष्ट भंगकी संख्या हो जाती है उदाहरण यह है कि-३२४१५ यह कौथा भङ्ग है? यह किसी ने पूछा, यहाँपर पांचवीं पंक्ति में पांच दीखता है; अतः सर्व लघु (५) पांचको आदि में करके (६) ऊपर के कोष्ठसे गिनने पर शून्य कोष्ठक में पांच स्थित है। इसलिये यहां पर लब्ध कुछ नहीं होता है, चौथी पंक्ति में एक दीखता है, पहिले पांचवी पंडि में स्थित होनेके कारण क्रमागत(७) भी लघ पञ्चक को छोड़कर लघ चार को आदि में करके गिनने पर एक से प्रा. क्रान्त [८] कोष्ठक के लब्ध १८ हैं, तीसरी पंक्ति में चार दीखता है; यहां पर भी पूर्व के समान पांच को छोड़ कर लघु चार को आदि में करके गिनने पर चार से आक्रान्त कोष्ठकमें विद्यमान [९] शून्य लब्ध हुआ, दूसरी पंक्ति में द्विक दीखता है; इसलिये पूर्व कही रीति से लघ भी पांच और चार को खोड कर लघत्रिक को प्रादि में करके गिनने पर दो में प्राक्रान्त कोष्ठ में लब्ध एक है, प्रथम पंक्ति में त्रिक दीखता है; इसलिये पूर्वानुसार पांच और चार को छोड़ कर तीन को आदि में करके गिनने पर त्रिक से आक्रान्त
१-कथितरीत्या ॥२-गणनायां कृतायाम् ।। ३-कथित ॥ ४-आदि शब्दसे पांच आदि को जानना चाहिये ॥ ५-सबसे छोटे ॥६-पांच से लेकर ॥ ७-क्रम से आये हुए।। ८-युक्त ॥ :-स्थित॥
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