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श्रीमन्त्र राजगुणकल्पमहोदधि ॥
दीपिका-अथवा ज्येष्ठ ज्येष्ठ श्रङ्क को श्रादि करके नीचे के कोष्टक से गिनती करनी चाहिये, तात्पर्य यह है कि -पूर्वानुपूर्वी के द्वारा एक दो तीन चार और पांच आदि श्रङ्कों से कोष्ठकों को श्रङ्कित करना चाहिये, नष्ट आदि के लाने के समय यह अर्थ (१) स्पष्ट हो जावेगा ॥ २२ ॥
( ३६ )
मूलम् -- पइ पंतिएगकोट्ठय, अङ्कग्गहणेणजे हिंजे हिंसिआ ॥ मूलइगंकजुएहिं, नटुंको तेसुखिव अक्खे ॥२३॥ संस्कृतम्-प्रतिपंक्ति एककोष्ठकाङ्क, ग्रहणेन यैर्यैः स्यात् ॥ मूलैकाङ्कयुतैः, नष्टाङ्कस्तेषु क्षिपाक्षान् ॥२३॥
भाषार्थ - प्रत्येक पंक्ति में एक कोष्टकाङ्क (२) के ग्रहण के द्वारा एक के जोड़ने पर जिन २ कोष्टकाङ्कों तथा मूल पंक्तिके अङ्कोंके द्वारा नष्टाङ्क होजावे उन कोष्ठों में अक्षों को डालो ॥ २३॥
स्वोपज्ञवृत्ति- - श्रथ नष्टानयनमाहः
इह प्रतिपंक्ति एकैक एव कोष्टकाङ्की (३) ग्राह्य. (४) ततो यैयैः कोष्टकाङ्कः परिवर्त्तके (५) मूं पंक्तिसर कैक (६ युतैर्नष्टाङ्को नष्टभङ्गस्य संख्या स्यात्; तेषु तेषु कोष्ठकेषु अभिज्ञानार्थं (9) हे शिष्य ! त्वमक्षान् क्षिप स्थापय || २३॥ दीपिका-अब नष्ट के श्रानयन (८) को कहते हैं:
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इसमें [C] प्रत्येक पंक्ति में कोष्टक के एक एक अङ्कको ही लेना चाहिये; इस लिये कोष्ठ के परिवर्त में विद्यमान जिन २ अङ्कों के साथ मूल पंक्तिके एक जोड़ देने से नष्टाङ्क अर्थात् नष्ट भङ्ग की संख्या हो जावे; उन २ कोष्ठकों में अभिज्ञान (१०) के लिये हे शिष्य तुम को डालो अर्थात् स्थापितकरो ॥ २३ ॥
मूलम् - अक्वंट्ठाण समाई, पंतो सुअतासुन गुरुवाइ ॥ नेयाइसुन्नकोट्ठय, संखास रिसाइ से सासु ॥२४॥
१- विषय ॥२- कोष्ठक का अङ्कः ॥३ - कोष्टकस्याङ्कः ||४- ग्रहीतव्यः ॥ ५- परिवर्त्त 'रूपेण विद्यमानः ॥ ६-मूलपंक्तिस्थेनकेन युक्तः ॥ ७- अभिज्ञानं कर्तुम् ॥ ८-लाना ॥ ६- इस विधि में ॥ १० - पहिचान ॥
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