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________________ प्रथम परिच्छेद ॥ . (३५) ऊपर के कोष्ठसे अन्तिम आदि पंक्तियों में (१) गणना करनी चाहिये ॥२१॥ स्वोपज्ञवृत्ति-अथ नष्टोद्दिष्टविधौ कोष्ठेष्वङ्कगुणा नरी तिमाहः यथा प्राक् नष्टोद्दिष्टविधौ (२) पश्चानुपूा अन्त्यादिपंक्तिषु येऽङ्काः पूर्व स्थिताः स्यः; ते गताष न गण्यन्ते स्म; तथाऽत्रापि (३) तान् (४) मुः त्क्वा लघुमङ्कमादिं कृत्त्वोपरितनकोष्ठकात् गणनीयम् , पश्चानुपूा नवाष्ट सप्तषट्पञ्चचतुरादिभिरङ्क: कोष्ठका अङ्कनीया इत्यर्थः ॥२१॥ दीपिका-अब नष्ट और उद्दिष्ट के विधान में कोष्ठों में अंक के गिनने की रीति को कहते हैं: जिस प्रकार पहिले नष्ट और उद्दिष्ट की विधि में पश्चानुपूर्वी के द्वारा अन्त्य आदि पंक्तियों में जो अंक पहिले स्थित थे और वे गतांकों में नहीं गिने गये थे उसी प्रकार यहां पर भी उनको (५) छोड़ कर लघु अंक को आदि करके ऊपरके कोष्ठ से गिनती करनी चाहिये, तात्पर्य यह है कि पश्चानपूर्वी के द्वारा नौ, प्राट, सात, छः, पांच और चार आदि अंकों से कोष्ठों को अंकित करना चाहिये ॥२१॥ मूलम्--अहवा जिटुंअङ्क आई, काऊणमुत्तु ठविअङ्के । पंतोसुअंतिमाइसु, हिटिमकोट्ठाउगणिअव्वं ॥२२॥ संस्कृतम् अथवा ज्येष्ठमङ्कमादिं, कृत्वा मुक्त्वा स्थापितानङ्कान् ॥ ___पंक्तिष्वन्त्यादिषु, अधस्तनकोष्ठाद् गणनीयम् ॥२२॥ • भाषार्थ-अथवा ज्येष्ठ अङ्कको श्रादि करके (६) तथा स्थापित (७) अटों को छोडकर नीचेके कोष्ठ से अन्तिम आदि पंक्तियों (८) में गाना करनी चाहिये ॥२२॥ ___ स्वीपज्ञवृत्ति-अथवा ज्येष्ठं ज्येष्ठमङ्कमादिं कृत्वाधस्तनकोष्ठकाद् गणनीयम्, पूर्वानुपूर्त्या एकद्वित्रिचतुःपञ्चादिभिर है : कोष्ठका अङ्कनीया इत्यर्थः, नष्टाद्यानयने () अयमर्थः (१०) स्पष्टीभावी ॥ (११) ॥२२॥ १-अन्त्य से लेकर पूर्व पूर्व पंक्तियों में ॥२-नष्टस्यो विष्टस्य च विधाने ३-अ. स्मिन्नपिविधौ ॥ ४-पूर्वस्थितानङ्कान् ॥ ५-पूर्व में स्थित अङ्कका ॥६-ज्येष्ठ अङ्कसे ले कर॥ ७-रक्खे हुए ॥८-पूर्व अनेक वार आशय लिख दिया गया है। -दिशब्दनोद्दिष्टग्रहणम् ॥ १०-विषयः ॥ ११-स्पष्टीभविष्यति ।। Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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