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प्रथम परिच्छेद ॥
(१५).
जानना चाहिये, तात्पर्य यह है कि परिवर्तक उस के तुल्य ही होता है, जैसे देखो-एकरूप पूर्व गण की जो भंगसंख्या एक है, वही द्विकरूप उत्तर गण में परिवर्त है, तथा द्विकगण की भंगसंख्या द्वयरूप है, इस लिये त्रिकरूप उत्तर गण में परिवर्त भी द्वयरूप है, तथा वित गरा में छः अंग हैं अतः चतुर्थाण में परिवर्त भी छः रूप है, तथा चतुप्कगण में भंग २४ हैं, अतः पंचम गण में परिवर्त भी २४ है, इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। अब ( गाथा के ) उत्तरार्ध के द्वारा परिवर्त के लाने के लिये तीसरे प्रकार को कहते हैं- "निय निय" इति, अथवा निज निज गण की भंगसंख्या में अपने२ गण के अन्तिम अंक का भाग देने पर परिवर्त हो जाता है, जैसे देखो-एक गण की भंगसंख्या एक है, उस में यहां पर अन्त्य अंक एक का भाग दिया तो लब्धांक एक हुआ, बस यही प्रथम पंक्ति में परिवर्त है, तथा द्विकगण में भंगसंख्या दो है, उस में द्विकगण के अन्त्य अंक दो का भाग दिया तो लब्धांक एक हुआ, इस लिये इस में भी परिवर्तीक एक ही है, तथा त्रिकगण में भंगसंख्या छः है, उस में त्रिकगण के अन्त्य अंक तीन का भाग दिया तो लब्ध दो हुए अतः त्रिकगण में यही परिवर्त है, तथा चतुष्कगण में संख्या २४ है उस में अन्त्य अंक चार का भाग दिया तो लब्धं छः हुए, यहां पर यह परिवर्त है, इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये।
यह परिवर्तनों की स्थापना है ॥ १० ॥
मूलम् इग इगदु छ चउवीसं
विसुत्तरसयं च सत्त सय वीसा ॥
१-दो रूप ॥२-अपने अपने ॥ ३-पिछले ॥४-पिछले ॥५-इस लिये ॥६-लब्धांक ॥ ७-परिवर्ताक
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