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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥
से सदृश अंकों का स्थापन करना समयभेद कहलाता है, उस को छोड़ कर अर्थात् टाल कर, यहां पर पांच पदों को मान कर उदाहरण दिया जाता है, देखो-१,२,३,४,५, यह आनुपूर्वी है, यहां पर एक (अंक) सर्वज्येष्ठ है, क्योंकि उस से बढ़ कर कोई ज्येष्ठ नहीं है, इस लिये उस के नीचे कुछ नहीं रक्खा जाता है, इस के पश्चात् द्विक का एक ज्येष्ठ है, इस लिये वह उस के नीचे रक्खा जाता है, इस से आगे ऊपर की पंक्ति के समान ३,४,५, रूप अंकसमूह रक्खा जाता है, अब शेष रहा द्विक, इस लिये उसे पूर्व रखना चाहिये, दूसरी पंक्ति २,१,३,४,५, हो गई । अब तीसरी पंक्ति में आर्य द्विक का एक ज्येष्ठ है परन्तु उस के रखने पर आगे ऊपर वाले अंक १,३,४,५, के रखने पर सदृश अंकों की स्थापनारूप समयभेद हो जावेगा, इस लिये द्विके छोड़ दिया जाता है और एक का कोई ज्येष्ठ नहीं है इस लिये उस का भी त्याग होता है, इस लिये एक और द्विक को छोड़ कर त्रिक का ज्येष्ठ द्विक है वह उस के नीचे रक्खा जाता है, उस के आगे ऊपर के समान ४,५, रूप अंकों को रखना चाहिये, अब शेष रहे एक और तीन, उन को ज्येष्ठादि क्रम से पूर्व रखना चाहिये, अब १,३,२,४,५, यह तीसरी पंक्ति बन गई, अब चौथी पंक्ति में-एक का ज्येष्ठ कोई नहीं है, इस लिये उस को छोड़ कर त्रिक के नीचे ज्येष्ठं रक्खा जावे परन्तु ऐसा करने पर समयभेद हो जावेगा, इस लिये द्विक को छोड़ कर सर्वज्येष्ठ एक को रखना चाहिये, आगे ऊपर के समान २,४,५, रूप अंकों को रखना चाहिये, अब यहां पर त्रिक शेष रहा, उसे पहिले रखना चाहिये, तो चौथी पंक्ति ३,१,२,४,५, बन गई, इसी प्रक्रिया से वहां तक जानना चाहिये कि जहां तक पिछली पंक्ति में पांच, चार, तीन, दो, एक, ५,४,३,२,१, हो जावें ॥७॥
मूलम् --एगाई पयाणं,
उड्अहो आययासु पंतीसु॥
१-पूर्व भंग ।। २-सब से बड़ा ग्रंक ॥ ३-द्विक के ।। ४-पहिले, प्रथम ॥ ५-दो का अंक ॥ ६-एक का ।। ७ द्विक ।। ८-त्रिक के ॥ ६-एक को ।। १० ज्येष्ठ अर्थात् द्विक अंक ।। ११-सदृश अंकों की स्थापना ।। १२ शैली, रीति ।।
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