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श्रीमन्त्रराजमुणकरुपमहोदधि ।
स्वापजवत्ति-जिनं विश्वत्रयीवन्धमभिवन्ध विधीयते ॥
परमेष्ठिस्तवव्याख्या गणितप्रक्रियान्विता ॥ १ ॥ तत्रादावमिधेयगी समुचितेष्टदेवतानमस्कारस्वरूपमंगलप्रतिपादिकांगाथा
व्याख्या-परमेष्ठिनोऽहंदादयस्तेषां नमस्कारः श्रुतस्कन्धरूपो नवपदाष्टसम्पदष्टषष्टयक्षरमयो महामन्त्रस्तं भक्त्या स्तवीमि,तस्य नमस्कारस्य नवसंख्यानो पदानां प्रस्तारो भंगसंख्या नष्टम् उद्दिष्टम् आदिशब्दादानुपूर्व्यनानुपूर्यादिगुणनमहिमा चैतेषां कथनेन ॥ १॥
दीपिका--तीनों लोकों के वन्ध श्रीजिन देव को नमस्कार कर गणितप्रक्रिया से युक्त परमेष्ठिस्तय की व्याख्या को मैं करता हूं ॥ १ ॥
इस विषय में पहिले अभिधेय से विशिष्ट समुचित इष्ट देवता को नमस्कार करना रूप मंगल का कथन करने वाली गाथा को कहा है।
उस नमस्कार के जो नौ पद हैं उन का प्रस्तार, भंगसंख्या, नष्ट, उद्दिष्ट तथा आदि शब्द से आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी औदि के जपने का महत्व, इन (विषयों ) के कथन के द्वारा परमेष्ठी जो अहंदीदि हैं उन का जो श्रुतस्कन्धरूप नमस्कार है अर्थात् नौ पदों, आठ सिद्धियों तथा अड़सठ (६८) अक्षरों से विशिष्ट जो महामन्त्र है उस की मैं भक्ति के साथ स्तुति करता ई ॥१॥
मूलम्--एगाईण पयाणं,गणअन्ताणं परोप्परं गुणणे॥
अणुपुब्धिप्पाहाणं, अंगाणं हुंति संखाओ।।
१-वन्दना करने के योग्य ॥ २-परमेष्ठिस्तोत्र ।। ३-वाच्य विषय ॥ ४-युक्त ॥ ५-भेदों के फैलाय की प्रक्रिया ॥ ६-भांगों की संख्या ।। ७-अनुक्त संख्या का कथन ॥८-कथित स्वरूप की संख्या का प्रतिपादन ॥ ६-क्रम से गणना ।। १०-क्रम से गणना न करना ।। ११-आदि शब्द से पश्चानुपूर्वी को जानना चाहिये ।। १२-श्रादि शब्द से सिद्ध आदि का ग्रहण होता है ।। १३-१ध्ययन समूहरूप ।।
Aho! Shrutgyanam