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॥ श्रीः॥
श्रीमन्त्रराज गुणकल्पमहोदधिः
अर्थात् श्री पञ्च परमेष्ठि नमस्कार स्तोत्र व्याख्या ॥
अथ प्रथमः परिच्छेदः॥
श्री जिनकीर्तिसूरिविरचितं श्री पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमहास्तोत्रम् ॥
मूलम्--परमिट्टिणमुक्कार,थुणामि भरतीइ तनवपयाणं
पस्थारभंगसंखा, नाट्ठिाइकहणेण ॥१॥ संस्कृतम्-परमेष्ठिनमस्कारं स्तवीमि भक्त्या तभवपदानाम् ।। - प्रस्तारभंगसंख्यानष्टोद्दिष्टादिकथनेन ॥१॥ ___ भाषार्थ ---उस के नौ पदों के प्रस्तार, भंगसंख्या तथा नष्ट और उद्दिष्ट
आदि के कथन के द्वारा मैं भक्तिपूर्वक परमेष्ठिनमस्कार की स्तुति करता हूं॥१॥
१. (प्रश्न)-स्तोत्रकार श्रीजिनकीर्तिसूरि जी महाराज ने मृलगाथारचना से पूर्व अभीष्ट देव नमस्कार आदि किसी प्रकार का मंगलाचरण नहीं किया (जैसा कि ग्रन्थ की आदि में विघ्नादि के नाश के लिये प्रायः सब ही प्राचार्य करते हैं ) इस का क्या कारण है ?
(उत्तर)-"परमिट्टिणमुक्कारं" अर्थात् “परमेष्ठिनमस्कार" यह समस्त पद ही मंगलस्वरूप है, अतः पृथक् मंगलाचरण नहीं किया, अत एव स्वोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में इस गाथा को उन्हों ने अभीष्टदेवतानमरकारस्वरूप मंगलप्रतिपादिका कहा है ॥
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