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विधास्यन्ते नूनं मम समुपहासं यदिहते ॥ ४ ॥ गुणत्यागकदृश इति लोके सुविदिताः । सतां संसिद्धिं वै गुणगणसमादानकुशलाम् ॥ न भीतिस्तेभ्यो वीक्ष्य ननु हृदि मे दोषबहुला - दपि स्वान्ते त्वेषा विलसतितरां मोदगुरुता ॥५॥ (युग्मम्)
अर्थ - शान्ति युक्त शिवस्वरूप शिवपद के प्रधान कारण मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले अचिन्त्यरूप निर्मल मोह और मानको जीतने वाले तीनों लोकों के प्राणियों के नेत्रों में अनुपम सुधा का प्रवाह करनेवाले कल्याणरूप लतामें नवीन पत्रोंको उत्पन्न करने के लिये नेघके समान प्रतिशय कान्तियुक्त मुक्ति रूप सुन्दर अङ्गना के विलास में प्रीति रखनेवाले योगीश्वरी से ज्ञात तथा कथित स्वरूप वाले तथा लोकके अवलोकन की कला में अधिक प्रकाश वाले श्री पञ्च परमेष्ठियोंको बारंबार प्रणाम कर मैं श्रीजिन कीर्त्ति सूरीश्वरके बनाये हुए इस पञ्च परमेष्ठि नमस्कार के स्तोत्रकी व्याख्या को करता हूं जो कि ( स्तोत्र ) संसार समुद्र से पार करनेके लिये नौका के समान सुन्दर मङ्गलकारी तथा महाप्रभाव से विशिष्ट है ॥ ९ ॥ २ ॥ ३ ॥
अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि के समान इस सुन्दर स्तोत्र की व्याख्या में मुझ अल्प बुद्धिके प्रयासको देखकर तुच्छ बुद्धि वाले दुष्ट जन श्रवश्यमेव मेरा उपहास करेंगे क्योंकि इस संसार में यह बात प्रसिद्ध ही है कि वे (दुष्ट जन) गुणोंका त्याग कर केवल दोष पर ही दृष्टि डालते हैं परन्तु बहुत दोषवाले भी पदार्थ में से गुण समूहके ग्रहण में कुशल पुरुषों के स्वभाव का हृदय में विचार कर मुझे उन दुर्जनों का भय नहीं मेरे हृदय में यह प्रमोद की गुरुता ( गुरु मात्रा ) ही अधिक कि लास कर रही है ॥ ४ ॥ ५ ॥
है
शुभम् ॥
Aho! Shrutgyanam