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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदशि ॥
का प्राकार है, अभीष्ट सिद्धि का भण्डार है तथा सर्व कामसमधक होनेसे गुणों का अगाध उदधि है, प्रतएव इसके महत्त्व गुण और गूढ़ रहस्योंका पार पाना दूरदर्शी, प्रतिभासम्पन्न, प्रज्ञातिशय विशिष्ट महानुभावोंके लिये भी सुकर नहीं है तो भला मेरे जैसे साधारण जन का तो कहना ही क्या है, परन्तु हां किसी देवी प्रेरणा वा शुभ संस्कार वश एतद्विषयक सङ्कल्प विशेष को वासना के जागृत होनेसे मुझे इस कार्य में प्रवृत्त होना ही
___ जगत्प्रसिद्ध बात यह है कि प्रत्येक कार्यके लिये समुचित योग्यता की श्रावश्यकता होती है और जिसकी जितनी वा जैसी योग्यता होती है वह उस कार्य को उतनी ही विशेषता और उत्तमता के साथ कर सकता है, किञ्च-यह भी ध्यान रहे कि कार्य का विस्तार करते समय मैंने अपने अन्तः करणमें सङ्कोच को तनिक भी स्थान नहीं दिया है अर्थात् बुद्धिके अनमार हृदयमें समुत्पन्न हुए इसके अङ्गोपाङ्ग सम्बन्धी सब ही विषयोंका समावेश किया है ( जैसे इस महामन्त्र के नव पद कौन २ से हैं, इसको नयकार मन्त्र क्यों कहते हैं, इसके किस २ पदमें कौन २ सी सिद्धि सन्निविष्ट है, "मरिहताणं" इत्यादि पदोंमें षष्ठी विभक्तिका प्रयोग क्यों किया गया है, नमस्कार क्रिया के तिने भेद हैं; जो क्रम परमेष्ठि नमस्कार मन्त्रका रक्खा गया है उसका क्या हेतु है, इसके अतिरिक्त अन्य मुख्य पदों तथा तदन्तर्गत “सव" "लोए" "पंच” “मङ्गलाणं” “सवेसिंग "पढमंग "हवइ” “मंगलं” इत्यादि पदोंके उपन्यास का क्या प्रयोजन है, इत्यादि,) तात्पर्य यह है कि-विषय विस्तार में लेश मात्र भी सङ्कोच नहीं किया है, हा विषय प्रतिपादनमें उतना ही विस्तार किया जा सका है कि-जहांतक बुद्धि, विद्या और योग्यताने, अवलम्ब दिया है, अतएव विषय प्रतिपादन प्रकरणमें यह भी सम्भव है कि-किमी विषय का प्रतिपादन वा उसका कोई भाग किसी को रुचिकर न हो; क्योंकि जनता की रुचि विभिन्न होती हैं, परन्तु कार्य में प्रयास कर्ता किसी की रुचि वा अरुचि की ओर अपना लक्ष्य न लेजाकर अपनी रुचि के अनसार ही प्र. तिपाद्य विषय का प्रतिपादन करता है।
Aho! Shrutgyanam