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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ मार्ग बतला दिया है कि जिसके अवलम्बसे हम सहजमें रत्न विशेष को प्राप्त कर मानव जन्मके सर्वसुखोंके अधिकारी बन उन्हें प्राप्त कर सकते हैं, उन्हीं अमूल्य रत्नों में से यह "श्रीपंचपरमेष्ठि नमस्कार महामन्त्र” सूप एक सर्वोत्कृष्ट प्रमूल्य विशिष्ट रत्न है कि जिसका प्रभाव और यथोक्त अनष्ठान जन्य फल अभी पाप स्तोत्र कर्ता श्री जिनको ति सूरि आदि प्राचार्यों के पूर्व लिखित वाक्योंके द्वारा सुन चके हैं।
अब विचार यह उत्पन्न होता है कि इस भारत भूमिमें सहस्त्रों नहीं किन्तु लाखों मनुष्य हैं कि जो प्रतिदिन नवकार मालिका को लेकर कमसे कम नवकार मन्त्रकी एक दो माला तो अवश्य ही सटकाया करते हैं; उनमें प्रायः दो ही प्रकारके पुरुष दूष्टिगत होते हैं-द्रव्यपात्र तथा निर्धन, इनमें से प्रथम श्रेणिवालों को जो हम देखते हैं तो द्रव्यादि साधनों के होते हुए भी तथा ऐसे प्रभावशाली महामन्त्रका गुणन करते हुए भी उन्हें हम प्राधि और व्याधिसे रहित नहीं पाते हैं; अर्थात् उन्हें भी अनेक आधि और व्याधियां सन्तप्त कर रही हैं। दूसरी श्रेणि के पुरुषों की ओर देखने पर उनमें सहस्रों पुरुष ऐसे भी दृष्टिगत होते हैं कि जिनको शरीराच्छादन के लिये पर्याप्त वस्त्र और उदर पूर्ति के लिये पर्याप्त मन भी उपलब्ध नहीं है, इस बात को देखकर आश्चर्य ही नहीं किन्तु महान् विस्मय उत्पन्न होता है कि कल्पद्रुम से भी अधिक महिमा वाले सर्वाभीष्टप्रद तथा शाश्वत के भी प्रदायक इस "श्री पञ्चपरमेष्ठि नमस्कार महामन्त्र” के पाराधकोंकी यह दशा क्यों ? क्या इस महामन्त्रकी वह महिमा नहीं है जो कि वतलाई गई है ? क्या पूर्वाचार्योंने इसकी कल्पद्म से भी अधिक महिमा यों ही बतला दी है ? अथवा जो इस महामन्त्र का प्राराधन करते हैं वे विशुद्ध भावसे नहीं करते हैं ? अथवा उनकी श्रद्धामें कोई त्रुटि है ? इत्यादि, परन्तु नहीं, नहीं, यह केवल हमारी कल्पना मात्र है, क्योंकि वास्तव में उक्त महामन्त्र परम प्रभावशाली है और पूर्वाचार्यों ने कल्पद्र मसे भी अधिक जो इसकी महिमा कही है उसमें लेशमात्र भी असत्य नहीं है, क्योंकि परो. पकारव्रत, त्रिकालदर्शी, महानुभाव, पूर्वाचार्योंके विशुद्ध भावसे निकले हुए धाक्य सर्वथा निर्भम, प्रमाणभूत तथा अविसंवादी होनेसे परम माननीय हैं, तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसके प्राराधकजन विशुद्ध भावसे उसका
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