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प्रस्तावना।
आदि तीनों का परिपालन उमसे सहस्त्र गुण और लक्षगुण ही नहीं किन्तु कोटि गुण दुष्कर और दुर्गम है, ऐसी दशामें हम कैसे आशा कर सकते हैं कि हमारे लौकिक तथा पारलौकिक कार्य सुगमतया सिद्ध हों तथा हम शा. श्वत सुखके अधिकारी वनें, परन्तु धन्य है उन पूर्वज त्रिकालदर्शी सर्वक्ष महानुभावों को कि जिन्होंने हमारी भाविनीशक्ति और अवस्था को वि. चार हमारे लिये ऐसे सुगम उपायों का निदर्शन कर दिया है और ऐसे सुगम मार्ग को पतला दिया है कि-जिन उपायों का अवलम्बन करने और उस मार्गपर चलने से हममें सहज में वह शक्ति पा जाती है कि जिसके सहारेसे हम यथोचित विधान कर अपने लौकिक तथा पारलौकिक मनोरथोंकी पूर्ति और सिद्धि से वञ्चित नहीं रहने पाते है, यदि हम उन सर्वज्ञ म. हानुभावों के निर्दिष्ट सन सुगम उपायों तथा उस प्रदिष्ट मार्ग का अनुसरण न करें तो अपने हाथसे अपने पैर में कुठार मारनेवाले के समान क्या हम महामूर्ख; निर्विवेक और मन्द भाग्य न समझे जायेंगे कि जो हायमें आये हुए चिन्तामणि रत्न को काष्ठ और पाषाण जानकर फेंक रहे हैं। - क्या यह सामान्य खेद का विषय है कि हम इस रत्नगर्भा भारत घ. सुन्धरा में उत्पन्न होकर भी ( कि जहां के विज्ञान प्रादि सद्गुणों का प्रा. दर और गौरव कर हमारे पाशात्य बन्धु भी उसके भवलम्बसे प्रत्येक विषय में उन्नति करते जाते है और मुक्त गावठसे उसकी प्रशंसा करते हैं ) पूर्वा चार्यों के अर्जित, सञ्चित और सौंपे हुए उत्तमोत्तम रत्नों की कुछ भी अपेक्षा न कर प्रमाद जन्य प्रगाढ़ निद्रामें सोतेहुए उनको अपने हाथसे गंवा रहे हैं। यदि हममें उक्त प्रमाद न होता तो क्या कभी सम्भव था कि-विद्यानप्रवाद आदि रत्न भाण्डारोंकी वह विशिष्ट रत्नराशि हमारे हाथसे निकल जाती? क्या कभी सम्भव था कि हमारे जगत्प्रशस्य उत्कृष्ट ग्रन्थ भाण्डार कीटागार बन जाते और क्या कभी सम्भव था कि-हमारा इस प्रकार अध: पतन हो जाता ? ऐसी दशामें क्या प्राशा की जा सकती है कि हमसे इस रत्नगर्भा भारतवसुन्धरा के नवीन रत्नोंका अन्वेषण और संचय हो सके; जब कि हम माप्त रत्नराशि को ही गंवा बैठे हैं। ... प्रथम कहा जा चुका है कि हमारे त्रिकालदर्शी पूर्वज महानुभाव महास्मानों ने हमपर पूर्व दया और अनुयह कर हमें यह सरल उपाय और
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