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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ ऐसे प्राचार्यों के सम्बन्धमें सब ही को अपने में लघुभाव जानना चाहिये तथा उस ( लघभाव ) को ही हृदय में रखकर उनका आराधन व सेवन करना चाहिये, अतः स्पष्ट है कि-"पायरियाणं- इस पदके जप और ध्यानसे लधिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है। - (प्रश्न )-"उवझायाण" इस पदमें प्राप्ति सिद्धि क्यों सन्निविष्ट है ?
(उत्तर)-तवज्झायाणं " पदमें जो प्राप्ति सिद्धि सन्निविष्ट है उसके हेतु
ये हैं:
(क ) उपाध्याय शब्द का अर्थ प्रथम लिख चुके हैं कि-"जिनके स. मीपमें रहकर अथवा आकार शिष्य जन अध्ययन करते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं, अथवा जो समीपमें रहे हुए अथवा आये हुए साधु श्रादि जनोंको सिद्धान्त का अध्ययन कराते हैं वे उपाध्याय कहे जाते हैं, अथवा जिनके समीप्य (१) से सूत्र के द्वारा जिन प्रवचन (२) का अधिक क्षान तथा स्मरण होता है उन को उपाध्याय कहते हैं, अथवा जिनके समीपमें निवास करने से प्रत का प्राय अर्थात् लाभ होता है उनको उपाध्याय कहते हैं, अथवा जिनके द्वारा उपाधि अर्थात् शुभ विशेषणादि रूप पदवी की प्राप्ति होती है उनको उपाध्याय कहते हैं” उक्त शब्दार्थ से तात्पर्य यह है कि श्राराधना सूप सामीप्य (३) गमन से अथवा सामीप्य करण से “उवझायाणं- इस पदके द्वारा प्राप्ति नामक सिद्धि होती है।
(ख) उपाध्याय शब्द में पदच्छेद इस प्रकार है कि-"उप, अधि, आय” इन तीनों शब्दोंमेंसे “उप” और “अधि” ये दो अव्यय हैं तथा मुख्य पद “प्राय” है और उसका अर्थ प्राप्ति है, अतः उक्त शब्द का प्राशय (४) यह है कि “उप” अर्थात् सामीप्य करण ( उपस्थापन ) आदि के द्वारा “अधि" अर्थात् अन्तःकरणमें ध्यान करनेसे जिनके द्वारा “प्राय" अर्थात् प्राप्ति होती है उनको उपाध्याय कहते हैं, प्रतः शब्दार्थ के द्वारा ही सिद्ध हो गया कि “उवज्झायाणं” इस पद के जप और ध्यानसे प्राप्ति ना सिद्धि होती है।
( प्रश्न )-“सव्वसाहूणे” इस पदमें प्राकाम्य सिद्धि क्यों सन्निविष्ट है ?
१-समीपत्त्व, समीपमें निवास ॥२-जिन शासन ॥३-समीपमें जाना ॥ ४तात्पर्य ।
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