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षष्ठ परिच्छेद ।
(२२७) अब इस कथनमें यह समझना चाहिये कि चरक ऋषि ने प्राचार्यके जो गुण कहे हैं, उक्त गुणोंसे यक्त महानभावों के सामने : संसार लघ हैं, अर्थात् तुरल गुविशिष्ट प्राचार्यों से समस्त संभार शिक्षा ने योग्य है तथा संवार ऐसे महात्माओं को अपना गुरु मानकर तथा अनको लघु जानकर शिक्षा ले हो रहा है, इसके आगे उक्त ऋषि ने प्राचार्य का कर्तव्य बतलाया है, तदनन्तर (१) आचार्यके सम्बन्ध में शिष्य का यह कर्तव्य बतलाया है कि "शिष्य प्राराधनाको इच्छासे प्राचार्यके पास जावे और प्रमादरहित होकर उसकी अग्नि, देव, राजा, पिता और स्वामी के समान सेवा करे” अब विचारने का स्थल यह है कि आचार्यकी अग्नि, देव, राजा, पिता और स्वामीके समान सेवाना बतलाकर उसको कितना गौरव दिया है, विचार लीजिये कि जो आचार्य अग्नि, देव, राजा, पिता और स्वामी के तुल्य है क्या उससे बड़ा अर्थात् उसका गुरु कोई हो सकता है: नहीं; सब संसार नसके आगे लघु है, इस विषय में यदि कोई यह शंका करे कि"अस्त-प्राचार्य सर्व गुरु है और शिष्य तदपेक्षया (२) ला है; परन्तु जर शिष्य प्राचार्यकी सब विद्या को ग्रहण कर लेवे तब तो वह उसके समान ही हो जावेगा, फिर उसे लघ कैसे कह सकते हैं इसका उत्तर चरक ऋषिने अपने कथनमें स्वयं ही दे दिया है कि-"प्राचार्यकी कृपा से सब शास्त्रको मानकर शाल की दृढ़ताके लिये बिशुद्ध संज्ञासे विशिष्ट अर्थ के जानने लिये तथा बचन शक्तिके लिये फिर भी अच्छे प्रकार प्रयत्न करता रहे। इस कथन का तात्पर्य यह है कि शिष्य भाचार्यसे उमकी समस्त विद्याकी पाकर भी उसकी समता (३) को नहीं प्राप्त कर सकता है, अर्थात् उम्मको अपेक्षा लघ ही रहता है, क्योंकि अपनेको लघ मानने पर ही वह आचार्यश्रय (४) रूप अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है, अतः न मनसे सिद्ध हो गया कि प्राचार्य समस्त जगत्के गुरु अर्थात् शिक्षा दायक (4) हैं और उनके सम्बन्धमें समस्त जगत् लघु अर्थात् शिक्षा पाने योग्य क्योंकि आचार्यों का शिक्षादान अपनेको गुरु माननेपर तथा जगत् का शिक्षा ग्रहण अपनेको लघु मानने पर ही हो सकता है, भावार्थ (६) यह है कि
१-उसके पीछे ॥ २-उसकी अपेक्षा ॥ ३-तुल्यता, समानता ॥ ४-आचार्यक्षा आश्रय ॥ ५-शिक्षा देनेवाले ।। ६-यात्पर्य ।
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