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श्रीमन्त्रराज गुणकल्प महोदधि ॥
किसी को कितना ही सुयोग्य बना दें तथापि उसे अपने से लघु ही
और यह ठीक भी है कि लघु समझने के विना ज्ञानदान, उपदेश प्रचार का क्रिया का परिपालन कराना तथा अनेक उपायोंसे प्रतिबोध वरना इत्यादि कार्य नहीं हो सकते हैं, अतः लोकस्थ जीव गण के प्रतिलाघव भव्य विशिष्ट प्राचार्यों के ध्यान से लघिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है । ( ग ) चरक ऋषि ने आचार्य के विषय में यह लिखा है कि:श्रुतं परिदृष्टकर्माणं दक्षं दक्षिणं शुचिं जितहस्तमुपकरणवन्तं
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मियोपपन्नं प्रकृतिज्ञं प्रतिपत्तिक्षमनुपस्कृतविद्यमनसूयकमकोपनं क्लेशशर्म 1 व्यत्रत्सल शिध्यापकं ज्ञानदानसमर्थमित्येवं गुणो ह्यचार्यः सुक्षेत्रमार्तयो शस्यगुणैः सुष्यमाशु वैद्यगुणैः सम्पादयति, तमुपसृत्यारिइव वर्धा दनिवत्र देववच्च राजवच्च पितृवच्च भर्तृवच्चाप्रमत्तस्तत्प्रसादात् कुह शास्त्र मधिगम्य शास्त्रस्य दृढ़तायामभिधान सौष्ठवस्यार्थस्य विज्ञाने शौच भूयः प्रयतेत सम्यक् । ॥ १ ॥
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शर्थात्– विशुद्ध, शास्त्र बोधयुक्त (१) कार्य को देखा हुआ, दक्ष, कुशल, पवित्र, जितहस्त ( २ ), सर्व सामग्री से युक्त, सब इन्द्रियों से युक्त, स्वभाव कर जाननेवाला, सिद्धान्त वा सिद्धि को जाननेवाला, उपस्कार से रहित विद्यावाला, असूया (३) न करनेवाला, क्रोधरहित, क्लेश सहन में समर्थ शिष्योंपर प्रेम रखनेवाला, अध्यापन कार्य करने वाला तथा देने में समर्थ, इस प्रकारके गुणोंसे युक्त आचार्य सुशिष्य को शीघ्र ही वैद्यगुणों से इस प्रकार सम्पन्न (६) कर देता है जैसे कि वर्षाऋतुका क्षेत्र सुक्षेत्र को शस्य (५) गुणोंसे शीघ्र ही सम्पन्न कर देता है, इसलिये शिव्य ate है कि आराधना करनेकी इच्छा से उस ( आचार्य ) के पास ज कर तथा प्रसाद रहित होकर श्रग्नि के समान; देव के समान राजाके समानः पिता के समान और स्वामीके समान उसे जानकर उसकी सेवा करे; तथा पृष्ठकी कृपा से सब शास्त्रों को जानकर शास्त्रकी दृढ़ता के लिये विशुद्ध संज्ञा से विशिष्ट अर्थ के जानने के लिये तथा वचन शक्तिके लिये फिर भी अच्छे फारसे प्रयत्न करता रहे ॥ १ ॥
शास्त्र के बोध (ज्ञान) से युक्त || २-दाथ को जीते हुए ॥ ३ गुणोंमें दो वीक्षण | ४-क १५५ ॥
Aho ! Shrutgyanam