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षष्ठ परिच्छेद |
( २२५) श्रतः श्रर्थापत्या (९) लघिमा शब्द में यह प्राशय (२) गर्भित (३) है कि दो लघु अक्षर जिसके मध्य में विद्यमान हों, ऐसा पद " आयरियाणं" है, अतः उसके जप और ध्यान से लघिमा सिद्धि प्राप्त होती है ।
(ख) प्रथम कह चुके हैं कि जो मर्यादा पूर्वक अर्थात् विनयपूर्वक जिन शासनके अर्थ का सेवन त् उपदेश करते हैं, अथवा उपदेश के ग्रहण करमैका इच्छा रखनेवाले जिन का सेवन करते हैं उनको प्राचार्य कहते हैं, अथवा जानाचार आदि पांच प्रकार के आधार के पालन करने में जो अत्यन्त प्रवीण (४) हैं तथा दूसरों को उनके पालन करने का उपदेश देते हैं उनको आचार्य कहते हैं, अथवा जो मर्यादा पूर्वक विहार रूप आचार्य का विधिवत् (५) पालन करते हैं तथा दूसरों को उसके पालन करनेका उपदेश देते हैं उनको प्राचार्य कहते हैं, अथवा युक्तायुक्त विभाग निरूपण ( ६ ) करने में कुशल (9) शिष्य जनों को यथार्थ (c) उपदेश देनेके कारण प्राचार्य कहे जाते हैं ।
श्राचार्य जन प्राचारके उपदेश देनेके कारण परोपकार परायण (2) होते हैं, युग प्रधान कहलाते हैं, सर्वजन मनोरञ्जक (१०) होते हैं, वे जगद्वर्ती (९९) जीवों में से भव्य जीवको जिनवाणी का उपदेश देकर उसको प्रतिबोधित (१२) करते हैं, वे किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति कराते हैं, किसी को देश विरति की प्राप्ति करते हैं, किसी को सर्व विरति की प्राप्ति कराते हैं, कुछ जीव उनके उपदेश का श्रवण कर भद्र परिणामी हो जाते हैं, वे नित्य प्रमाद रहित होकर श्रप्रमत्त धर्म का कथन करते हैं, वे देशकालोचित विभिन्न उपायोंसे शिष्य आदि को प्रवचन का अभ्यास कराते हैं, साधुजनोंको क्रिया का धारण कराते हैं तथा केवल ज्ञानी भास्कर (१३) समान श्रीतीर्थङ्कर देवके मुक्ति सौध (१४) में जानेके पश्चात् उन के उपदिष्ट (१५) त्रिलोकवर्ती (१६) पदार्थों का प्रकाश आचार्य हो करते हैं ।
आचार्यों का यह नैसर्गिक (११) स्वभाव है कि उपदेशादिके द्वारा वे
१- अर्थापतिके द्वारा ॥ २- तात्पर्य ॥ ३- मिश्रित, भीतर रहा हुआ ||४- कुशल ॥ ५विधिपूर्वक ॥६- योग्य और अयोग्य के विभाग का निश्चय ॥७- अचतुर ॥ - ८सत्य ॥६तत्पर ॥ १०-सब मनुष्योंके मनों को प्रसन्न करनेवाले ॥ ११ - संसारके ॥१२- बोधयुद्ध ॥ १३- सूर्य ॥ १४- मुक्ति महल ॥ १५- कहे हुए ॥ १६- तीनों लोकोंके । ९७-स्वाभाविक ॥
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