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श्रीवरजगुण र लामहोदधि ॥ कितनी शक्ति है कि उस के परिवर्तन से न तो वह अर्थ रहता है और न उसमें उस वाच्यार्थ (१) के द्योतन (२) को शक्ति रहती है, इसी नियम के अनुमार मगरण रूप जो भिद्धाणं” पद है, उसी में जप प्रादिके द्वारा गरिमा सिद्धि के प्रदान करने की शक्ति है; वह शक्त मगण रूप अन्य शब्दों में नहीं हो सकती है, किस-“सिद्धाणं” इस पद में “सिद्धा" और "गं" इन दो पदों के सहयोग (३) से गरिमा सिद्धि की प्रदान शक्ति रही हुई है, जो कि इन के पर्याय (४) वाचक शब्दों का सहयोग करने पर भी नहीं पा सकती है, तद्यथा (५) यदि हम सिद्धा का पर्यायवाचक “निपन्ना" वा "सम्पन्ना" शब्द को “क” के साथ जोहदें अर्थात् "सिद्धा" के स्थान में तत्पर्यायवाचक (६) रुप “निष्पन्नाणं” अथवा “सम्पन्ना" शब्द का प्रयोग करें, यदि वा "णम्" के पर्यायवाचक 'खल. श्रादि शब्दोंको “सिद्धा” पद के साथ जोडदें तथापि उन में वह शक्ति कदापि नहीं हो स. कती है, प्रत्यक्ष उदाहरणा यही देख लीजिये कि-मृग और पशु यद्यपि ये दोनों शब्द.पर्याय वाचक हैं; तथपि “पति" शब्द के साथ में संयक्त होकर एक अर्थ को नहीं बतलाते हैं किन्तु भिन्न २ अर्थ को ही बतलाते हैं - र्थात् मगपति शब्द सिंह का तथा पशुपति शब्द महादेव का ही बोधक (७) होता है, अतः मानना पड़ेगा कि शब्द विशेष में वाच्य विशेष के द्योतन की जो स्वाभाविक (८) शक्ति है वह शक्ति वाह्य () धर्म विशेष आदि के द्वारा तदनुरूप (१०) वा तात्पर्य वाचक शब्द में भी सर्वया नहीं रहती है।
(ङ) यह भी हेतु होसकता है कि-सिद्धि दायक पदों में से "सिद्धा" यह पद तीसरा है, अतः यह तीसरी सिद्धि गरिमा का दाता है। (प्रश्न )-"पायरियाणं' इस पदमें लघिमा सिद्धि क्यों सन्निविष्ट है?
[ उत्तर]-"पायरियाणं” पद में जो लघिमा सिद्धि सम्निविष्ट है उस के हेतु ये हैं;
( क )-लघु शब्द से भाव अर्थ में इमन् प्रत्यय के लगने से “लघिमा" शब्द बहता है १९), भावद्योतन (१२) सदा सहयोगी (१३) के सम्मुख होता है,
१-वाध्यपदार्थ ॥ २ प्रकाशन ॥ ३-संयोग ॥ ४-एक अर्थ के वाचक । ५-जैले देखो॥६-उसके पर्याय वाचक ॥ ७-ज्ञापक, सूत्रक ॥८-स्वभाव सिद्ध ॥ १-बाहरी । १०-उस के अनुकूल ॥ ११-जैसा कि पूर्व वर्णन करयुके हैं ॥१२-प्रका शन ॥ १३-साथ में योग रखने वाले ॥
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