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षष्ठ परिच्छेद ||
( २२६ )
• ( उत्तर ) - " मध्य साहूणं" इस पदमें जो प्राकाम्य सिद्धि सन्निविष्ट है उसके हेतु ये हैं:
क) प्रथम कह चुके हैं कि - "ज्ञानादि रूप शक्ति के द्वारा मोक्ष का साधन करते हैं उनकी साधु कहते हैं, अथ जो सब प्राणियोंपर समत्व (१) का ध्यान रखते हैं उनको साधु कहते हैं; अथवा जो चौरासी लाख afa योनिमें उत्पन्न हुए समस्त जीवोंके साथ समत्व को रखते हैं उनको साधु कहते हैं, अथवा जो संयम के सत्रह भेदों का धारण करते हैं उनको साधु कहते हैं, अथवा जो महायों के सहायक होकर तपश्चर्या (२) आदि में सहायता देते हैं उनको साधु कहते हैं, अथवा जो संयमकारी (३) जनों की सहायता करते हैं उनको साधु कहते हैं”
मोक्ष मार्ग में सहायक होनेके कारण वे परम उपकारी (४) होते हैं, ये पांचों इन्द्रियोंको अपने वशमें रखकर तद्विषयों (५) में प्रवृत्ति नहीं करते हैं, षट् काय (६) जीवों को स्वयं रक्षा कर दूसरों से कराते हैं, सत्रह भेद विशिष्ट संयम का प्राराधन कर सब जीवोंपर दयाका परिणाम रखते हैं, अठारह सहस्त्र शीलाङ्ग रूप रथके वाहक (9) होते हैं अचल प्राचारका परिबेवन करते हैं, नव विध (८) ब्रह्मचर्य गुप्ति का पालन करते हैं, वारह प्र कारके तप में पौरुष (2) दिखलाते हैं, श्रात्मा के कल्याण का सदैव ध्यान रखते हैं, प्रदेश और उपदेश से पृथ रहते हैं, जनसङ्गम; वन्दन और पूजन आदि की कामना से सदा पृथक् रहते हैं, तात्पर्य यह है कि उनको किसी प्रकार की कामना नहीं होती है अर्थात् वे सर्वथा पूर्ण काम (१०) होते हैं अतः पूर्ण काम होनेके कारण उनके ध्यान करनेसे ध्याता को भी पूर्णकामना अर्थात् प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
( ख ) - “ साध्नोति साधयति वा पराणि कार्याणि इति साधुः " - र्थात् जो पर कार्यों को सिद्ध करता है उसका नाम साधु है, साधु शब्दका उक्त अर्थ ही इस बात को प्रकट करता है कि साधु जन पर कामना तथा तत्सबन्धी कार्यों को पूर्ण करते हैं, अतः मानना चाहिये कि “ सव्वसाहूणं ' इस पदके ध्यानसे प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
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१- समता, तुल्यता ॥ २- तपस्या ॥ ३-संयमके करनेवाले ॥ ४- उपकार करने वाले ॥ ५- इन्द्रियोंके विषयों ॥ ६-पृथिवी आदि छः काय ॥ ७- चलानेवाले ॥ ८-नौ प्रकारकी ॥ ६-शक्ति पर क्रम ॥ १०- पूर्ण इच्छावाले ॥
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