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( २१३ )
श्रीमन्त्र राजगुण कल्पमहोदधि ॥
( उत्तर ) - इस मन्त्रराज के निम्नलिखित (१) पदों में निम्नलिखित सिद्धियां सन्निविष्ट हैं:
१ - " णमो” इस पद में प्रणिमा सिद्धि सन्निविष्ट है ।
२- अरिहन्ताणं” इस पद में महिमा सिद्धि सन्निविष्ट है ।
३ - " सिद्धाणं” इस पद में गरिमा सिद्धि सन्निविष्ट है ।
४ - " आयरियाणं” इस पद में लघिमा सिद्धि सन्निविष्ट है । ५-" उवज्झायाणं” इस पद में प्राप्ति सिद्धि सन्निविष्ट है । ६- " सव्व साहूणं" इस पद में प्राकाम्य सिद्धि सन्निविष्ट है । 9- " पञ्चणमोक्कारो” इस पद में ईशित्व सिद्धि सन्निविष्ट है । ८ - " मङ्गलाणं" इस पद में वशित्व सिद्धि सन्निविष्ट है ।
( प्रश्न ) " णमो " इस पद में अणिमा सिद्धि क्यों सन्निविष्ट है ? ( उत्तर ) - " णमो " पद में जो अणिमा सिद्धि सन्निविष्ट है उस के हेतु ये हैं:
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( क ) "रामो” यह पद संस्कृत के नमः शब्द से बनता है और " नमः” शब्द “ णम्” धातुसे अच् प्रत्यय के लगाने से बनता है, उक्त धातुका अर्थ नमना है तथा नमना अर्थात् नम्रता मनोवृत्ति का धर्म है । २) कि जो ( मनोवृत्ति ) इस लोक में सर्वसूक्ष्म (३) मानी जाती है, इस लिये "रामो” पद के ध्यान से अणिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
( ख ) - संस्कृत के ' मनः " पद में यदि आद्यन्त (४) अन्तरों का विपर्यय (५) किया जावे ( क्योंकि प्राकृत में अक्षर विपर्यय भी देखा जाता है जैसे करेणू=कणेरू, वाराणसी=वाणारसी, बालानम् = आणालो, अचलपुरम्=अलचपुरं, महाराष्ट्रम् = मरहट्ठ, हदः =द्रहो, इत्यादि ) तो भी "रामो” पद बन जाता है, तथा मनोगति के सूक्ष्मतम होने के कारण "सभी" पद के ध्यान से प्रणिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
( ग ) - प्रणिमा शब्द अणु शब्द से भाव अर्थ में इमन् प्रत्यय के लगने से बनता है, इस अणिमा शब्द से ही प्राकृत शैली से "रामो” शब्द बन स
१- नीचे लिखे ॥ २ तात्पर्य यह है कि मनोवृत्ति रूप धर्मों के विना नम्रतारूप धर्म की अवस्थिति नहीं हो सकती है ॥ ३- सबसे सूक्ष्म ॥ ४ आदि और अन्त ॥ ५- परिवर्तन |
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