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षष्ट परिच्छेद।
(२१३) सूक्ष्म हो जाता है, कि जिससे उसे कोई नहीं देख सकता है।
( ख ) महिमा शब्द का अर्थ महान् ( बड़ा ) होना है ( महतो भावा महिमा), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होनेसे मनुष्य अति महान् हो सकता है तथा सर्व पूज्य (१) हो सकता है।
(ग) गरिमा शब्द का अर्थ गुरु अर्थात् भारी होना है ( गुरोर्भावो गरिमा), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होने से मनष्य अपनी इच्छा अनुसार गुरु ( भारी ) हो सकता है।
(घ) लघिमा शब्द का अर्थ लघु ( हलका ) होना है ( लघोर्भावो लघिमा ), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होने से मनष्य अपनी इच्छा के अनुसार लघु तथा शीघ्रगामी हो सकता है।
(ङ) प्राप्ति शब्द का अर्थ मिलना है ( प्रापणं प्राप्तिः ), अथवा जिस के द्वारा प्रापण ( लाभ ) होता है उस को प्राप्ति कहते हैं ( प्राप्यतेऽनयेति प्राप्तिः ), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होने पर मनुष्यको कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती है; अर्थात् एक ही स्थान में बैठे रहने पर भी दूरवर्ती आदि पदार्थ का स्पर्शादि रूप प्रापण हो सकता है।
(च) प्राकाम्य शब्दका अर्थ इच्छाका अनभिघात हैं (प्रकामस्य भावः प्राकाम्यम् ), इस लिये इस सिद्धि के प्राप्त होने पर जो इच्छा उत्पन्न होतो है वह पूर्ण होती है।
(छ) ईशित्व शब्द का अर्थ ईश ( स्वामी ) होना है ( ईशिनो भाव ईशित्वम् ), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होने से सब का प्रभ हो सकता है कि जिस से स्थावर भी उस के आज्ञाकारी हो जाते हैं।
(ज)-वशित्त्व शब्द का अर्थ वशवर्ती होना है ( वशिनो भावी वशिस्वम् ), इसलिये इस सिद्धि के प्राप्त होने से सब पदार्थ व प्राणी उस के यशीभत हो जाते हैं और वह (सिद्ध पुरुष ) उन से जो चाहे सो कार्यले सकता है लिखा है कि इस सिद्धि के प्राप्त होने से सिद्ध पुरुष जलके समान पृथिवी में भी निमज्जन और उन्मज्जन कर सकता है (२) ।।
(प्रश्न)-अब कृपया यह बतलाइये कि इस मन्त्रराज के किस पद में कौन २ सी सिद्धि सन्निविष्ट (३) है?
१-सबका पूजनीय ॥ २-सिद्धियोंके विषयमें यह अति संक्षेपसे कथन किया गया है, इनका विस्तार पूर्वक वर्णन देखना हो तो बड़े २ कोपोंमें तथा योगशास आदि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ॥३-समाविष्ट ॥
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