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षष्ठ परिच्छेद ।
(२११) के द्वारा वे लोग एक सम्पद मानते हैं तो उक्त दोनों पदों को वे एक पद रूप ही क्यों नहीं मानते हैं, अर्थात् उन्हें दोनों पदों का एक पद ही मानना चाहिये तथा एक पद मानने पर जगत्प्रसिद्ध जो इस महामन्त्र के नौ पद हैं ( कि जिन नौ पदोंके ही कारण इस को नवकारमन्त्र कहते हैं ); उनमें व्याघात (१) पाजावेगा अर्थात् आठ ही पद रह जावेंगे।
(ङ) दोनों पदों को एक पद मानने पर यह भी दूषण (२) भावेगा कि इस महामन्त्र के जो ( नौ पदों को मानकर ) तीन लाख, घासठ सहस्त्र, आठ सौ अस्मी भंग बनते हैं वे नहीं बन सकेंगे ( क्योंकि भङ्गों की उक्त संख्या नौ पदों को ही मानकर बन सकती है ), यदि पाठ ही पदोंके भङ बनाये जावें तो केवल चालीस सहस्त्र, तीन सौ बीस ही भङ्ग बनेंगे।
() यदि आठवें और नये पदकी एक ही सम्पद है तो अनानुपूर्वी भङ्गों में उन ( दोनों पदों ) की एक सम्पद कैसे रह सकेगी, क्योंकि अनानुपूर्वी भङ्गों में शतशः (३) स्थानों में आठवें और नवें पद की एक साथमें स्थिति न होकर कई पदों के व्यवधान (४) में स्थिति होती है, इस दशामें सम्पद् का विच्छेद (५) अश्य मानना पड़ेगा।
(छ) इस मन्त्र में नौ पद हैं तथा नौओं पदोंकी ( अनानपूर्वी के भेद से ) गुणनरूप क्रिया भी भिन्न २ है; अर्थात् पदों की अपेक्षा गुणनरूप क्रियायें भी नौ हैं, इसीलिये इसे नवकार मात्र भी कहते हैं, किन्तु उक्त दोनों पदोंकी एक सम्पद मानने पर सहयुक्त वाक्यार्थ योजना के द्वारा न तो नौ पदों की ही सिद्धि होती है और न नौ क्रियाओं को ही सिद्धि होती है और उनके सिद्ध न होनेसे "नवकार" संज्ञा (६) में भी त्रुटि पाती है।
(ज) यदि उक्त दोनों पदोंकी एक ही सम्पद है तथा वह फराभाविनी (७) है तो पश्चानुपूर्वी में ६, ८, ५, ६, ५, ४, ३, २, १, इन प्रकार से नौ
ओं पदोंकी स्थिति होने पर उस क्रमोच्चारण भाविनी (८) एक सम्पद का विच्छेद (९) अवश्य हो जावेगा। __इस विषय में और भी विशेष वक्तव्य (१०) है परन्तु ग्रन्थ के विस्तार के भयसे उसका उल्लेख नहीं किया जाता है।
१-बाधा ॥ २-दोष ॥ ३-सैकड़ों॥ ४-बीच में स्थित होना ॥५-टना ॥ - नाम ७-क्रम से हाने वाली ॥ ८-क्रमानुसार उधारण से रहने वाली ॥ -टूटना । १०-कथनीय विषय।
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