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________________ (१६२) श्रीमन्त्रराजगुण कल्पमहोदधि ॥ त्रिक शारूप जो नमस्कार है वह त्रिपुराके लिये प्रीतिदायक (१) है ॥६॥ दक्षिण दिशा से वायवी दिशा में जाकर और फिर वायवी दिशा से शाम्नवी दिशा में जाकर और फिर वहांसे भी दक्षिण दिशा में जाकर तथा उस को छोड़कर और अग्नि (२) दिशा में प्रवेश कर तथा अग्निदिशा से राक्षसी (३) दिशा में जाकर और वहां से भी उत्तर दिशा में जाकर तथा उत्तर दिशा से आग्नेयी दिशा की ओर जो घमना है यह नमस्कार दो त्रिकोणों ( पटकोणरूप ) के समान हो जाता है ॥ ७-८ ॥ षट्कोणरूप जो नमस्कार है वह शिव और दुर्गाको प्रीतिदायक है ॥९॥ दक्षिण दिशा से वायवी (४) दिशा में जाकर और वहां से फिर दक्षिण की ओर लौटकर इस प्रकार जाकर जो नमस्कार किया जाता है वह अर्घचन्द्र (५) कहा गया है ॥ १०॥ . . ___ साधक (६) पुरुष वर्तुलाकार (७) में एकवार प्रदक्षिणा इ.र जो नमस्कार करता है उसे द्विज जनों ने प्रदक्षिणा कहा है ॥ ११ ॥ अपने वैठने के स्थान को छोड़ कर पीछे जाकर प्रदक्षिणा के विना ही पृथिवी पर दण्ड के प्रभान गिर कर जो नमस्कार किया जाता है उस को देव "दण्ड” कहते है, यह दण्ड नमस्कार सर्वदेव समूह को मानन्द देने वाला है ॥ १२ ॥ १३ ॥ पहिले के समान, दण्ड के समान, भूमि पर गिर कर हृदय; चिबक (८), मुख, नासिका, ललाट, उत्तमाङ्ग तथा दोनों कानों से क्रम से जो भमि का स्पर्श करना है उस नमस्कार को मनीषी (ए) जनों ने अष्टाङ्ग नमस्कार कहा है ॥ १४ ॥ १५ ॥ ___ साधक पुरुष वर्तुलाकार होकर तीन प्रदक्षिणायें देकर शिरसे जिस नमस्कार में भूमि का स्पर्श करता है उसको देवगण उग्र नमस्कार कहते हैं और यह ( उग्र ) नमस्कार विष्णु को तुष्टिदायक है ॥ १६ ॥ १७ ॥. १-ग्रीति (तुष्टि) को देने वाला ॥ २-पूर्व और दक्षिण का मध्य ॥३-दक्षिण और पश्चिम का मध्यभाग॥ ४-वायवी आदि का लक्षण पूर्व लिख चुके हैं । ५-आधे चन्द्रमा के समान ॥ ६-साधन करने वाला ॥ ७-गोलाकार ॥ ८-ठोड़ी। -बुद्धिमान, विचारशील ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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