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पञ्चम परिच्छेद |
नदीनां सागरो याद्ग्, द्विपदां ब्राह्मणो यथा ॥ नदीनां जाह्नवी याद्ग्, देवानामिव चक्रधृक् ॥ १८ ॥ नमस्कारेषु सर्वेषु तथैव ग्रः प्रशस्यते ॥ १८ ॥ त्रिकोणाद्यैर्नमस्कारैः कृतैरेवतु भक्तितः ॥ चतुर्वर्गं लभेद् (१) भक्तो, न चिरादेव साधकः ॥ २० ॥ नमस्कारो महायज्ञः, प्रीतिदः सर्वतः सदा ॥ सर्वेषामपि देवाना, मन्येषामपि भैरव [२] ॥ २१ ॥ यो साग्रो नमस्कारः, प्रीतिदः सततं हरेः ॥ महामायाप्रीतिकरः, सनमस्करणोत्तमः ॥ २२ ॥
( इति सर्वे कालीपुराणे प्रतिपादितम् (३) )
अर्थ- त्रिकोण, षटकोण, अर्धचन्द्र, प्रदक्षिण, दण्ड, अष्टाङ्ग, और उग्र, ये सात नमस्कार के भेद हैं ॥ १ ॥
कामाख्या के पूजन में ऐशानी (४) तथा कौवेरी (५) दिशा उत्तम मानी गई है, सर्वमूर्त्ति के पूजन में स्थण्डिलादि (६) पर सब ही दिशायें प्रशस्त (१) मानी गई हैं ॥ २ ॥
( १६१ )
इस विषय में त्रिकोण श्रादि व्यवस्था को भी जान लेना चाहिये, वह इस प्रकार है कि यदि पूर्व मुख होकर पूजन करे तो पश्चिम दिशा से शा कवी (c) दिशा में जाकर स्थिति करे ॥
परन्तु यदि साधक (c) उत्तर मुख होकर देवपूजन करे तो दक्षिण दिशा से वायवी (१०) दिशा में जाकर स्थिति करे ॥ ४ ॥
अर्थात् दक्षिण दिशा से वायवी दिशा में जाकर तथा उस से शाम्भवी दिशा में जाकर और वहां से दक्षिण दिशा में जाकर स्थिति करे, तो यह नमस्कार त्रिकोण के समान हो जाता है ॥ ५ ॥
१- परस्मैपदञ्चिन्त्यम् ॥ २- सम्बोधनमिदम् ॥ ३- प्रश्नप्रतिवचनमुद्दिश्य विषयप्रदर्शनपरमिदं सर्वम् ॥ ४- पूर्व और उत्तरका मध्यभाग ॥ ५- उत्तर ॥ ६-वेदी आदि ॥ ७- श्रेष्ठ ॥ ८-पूर्व और उत्तरका मध्यभाग ॥ ६-साधन करने वाला ॥ १०-पश्चिम और उत्तर का मध्य भाग ॥
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