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श्रीमन्त्रराजगुणकल्प महोदधि ॥
संयोगादिके द्वारा अपनी हीनताको प्रगट करनेवाला व्यापार विशेष (१) है । ( प्रश्न ) - यह भी सुना है कि नमस्कार से पूर्व देव का उपस्थापन ( २ ) कर नमस्कार करना चाहिये, क्या यह सत्य है ?
(उत्तर) हां ऐसा तो अवश्य ही करना चाहिये, क्योंकि नतिकरण (३) अभिमुख (४) वा समीपवर्ती (५) के सम्बन्ध में हो सकता है, किन्तु दूरवर्ती (६) के सम्बन्ध में नहीं हो सकता है । कहा भी है कि:5:~
दूरस्थं जल मध्यस्थं, धावन्तं मदगर्वितम् ॥ क्रोधवन्तं विजानीयात्, नमस्कार्यञ्च वर्जयेत् ॥ १॥
अर्थात् यदि ( नमस्कार्य को ) दूर स्थित, जलमध्यस्थ दौड़ता हुआ, मदसे गर्वित ( 9 ) तथा क्रोधयुक्त (८) जाने तो नमस्कार न करे ।
अतः उपस्थापनके द्वारा सामीप्यकरण (९) कर आराध्य (१०) देवको नमस्कार करना चाहिये ।
( प्रश्न ) एकवार हमने सुना था कि फूल को हाथमें लिये हुए नमस्कार नहीं करना चाहिये; क्या यह बात सत्य है ?
( उत्तर ) हां यह बात ठीक है कि पुष्पोंको हाथमें लिये हुए नमस्कार नहीं करना चाहिये, देखो ? कर्मलोचन ग्रन्थमें कहा है कि:
पुष्पहस्तो वारिहस्तः, तैलाभ्यङ्गो जलस्थितः ॥ ग्राशीःकर्ता नमस्कर्ता, उभयोर्नरकम्भवेत् ॥ १ ॥
अर्थात् फूल को हाथ में लिये हुए, जल को हाथमें लिये हुए, तैल का मर्दन (१९) किये हुए तथा जलमें स्थित जो पुरुष आशीर्वाद देता है तथा जो नमस्कार करता है; उन दोनों को नरक होता है ॥१॥
इस का कारण यह समझ में आता है कि नमस्कार्य [१२] के सम्बन्ध में अपनी नम्रता [१३] दिखलाने का नाम नमस्कार है तथा हाथमें स्थित जो पुष्प रूप पदार्थ है वह नमस्कार्यको प्रर्पण (१४) करने योग्य है किन्तु अपनी
१ - चेष्टा विशेष ॥ २ - समीप में स्थापन ॥ ३- नमस्कार ॥ ४- सामने ॥ ५- नास में स्थित ॥ ६-दूर स्थित ॥ ७- ( अभिमान युक्त II ८- क्रुद्ध ।। ६समीपमें करना ।। १० - आराधन करने योग्य ॥ ११-मालिस ।। १२-नमस्कार करने योग्य ।। १३ - विनति ।। २४-दान ।।
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