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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ -राग पूर्वक स्त्री के अङ्ग और उपाङ्गों को न देखना ।
१०-भीत (१) श्रादि की आड़ में हुये अथवा काम विषयक [२] बातों को करते हुए स्त्री पुरुषों के समीप में न बैठना ।
१९-पूर्वावस्था (३) में स्त्रो के साथ की हुई काम क्रीड़ा का स्मरण न करना।
१२-कामोद्दीपक (४) सरस (५) तथा स्निग्ध (६) श्राहार का ग्रहया न करना।
२३-नीरस (७) माहारका भी मात्रा (८) से अधिक ग्रहण न करना (6) १४-शरीर का मगडन (१०) प्रादि न करना।
१५-क्रोध (११) चरित्रका नाशक(१२) परिणाम विशेष है। उसका सर्वथा त्याग करना।
१६-मान(१३) चरित्रका नाशक परिणाम विशेष है; उसका सर्वथा त्याग करना।
१७-माया [१४] चारित्रका नाशक परिणाम विशेष है उसका सर्वथा त्याग करमा ।
१८-लोभ भी चरित्रका नाशक परिणाम विशेष है उसका सर्वथा त्याग करना।
१-मन (१५) वचन और कर्मके द्वारा छः काय (१६) के जीवों के प्राणातिपात (१७) से निवृत्त होना ।
२०-क्रोध, लोभ, भय तथा हास्यादि कारण से-द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव के द्वारा मन वचन और काय से कदापि मृषायाद (१८)को न करना ।
१-दीवार ॥ २-काम के विषय में ॥ ३-पहिली अवस्था ॥ ४-काम का उद्दीपन करने वाले ॥ ५-रसों से युक्त ॥ ६-चिकने ॥ ७-रसों से र. हित ॥ ८-परिमाण ॥ -क्योंकि मात्रा से अधिक नीरस आहार भी काम चेष्टा को बढ़ाता है ॥ १०-भूषण, सजावट ॥ ११-अब यहां से आगे चार कषायों का त्याग कहा जाता है ॥ १२-नाश करने वाला ॥ १३-अभिमान ॥ १४-छल कपट ॥ ३५-अब यहां से आगे पांच महावतों का पालन कहा जाता है। १६-पृथिवी आदि छः काय ॥ १७-प्राणविनाश ॥ १८-असत्य भाषण ॥
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