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पञ्चम परिच्छेद ॥
( १७६)
गुण [१] आचार्य के हैं।
( प्रश्न )-कृपा कर के उक्त छत्तीस गणों का अलग २ वर्णन कीजिये?
(उत्तर)-उक्त छत्तीस गुणों का विषय बहुत विस्तृत (२) है तथा अन्य ग्रन्थों में उनका विस्तार पूर्वक (३) अच्छे प्रकार से वर्णन भी किया गया है अतः यहां पर ग्रन्थ विस्तार (४)के भय से उनका वर्णन अति सं. क्षेप से किया जाता है, देखोः
१-स्पर्शेन्द्रिय (५) के विषय स्पर्श के अनुकूल होने से प्रीतिकारी (६) होने पर उस में राग का न करना तथा प्रतिकल (७) होने से अनीति. कारी (८) होने पर उसमें द्वेष न करना।
२-प्राणेन्द्रिय (ए) के विषय गन्धके अनकल और प्रतिकूल होनेसे प्रीति कारी (१०) और अप्रीतिकारी होने पर उसमें राग और द्वेषका न करना ।
३-जिहेन्द्रिय (११) के विषय रसके अनकल और प्रतिकूल होनेसे प्रीति कारी और अप्रीतिकारी होने पर उसमें राग और द्वेष का न करना ।
४-नेत्रेन्द्रिय (१२) के विषय रूपके अनुकूल और प्रतिकूल होने से प्री. तिकारी और अग्रीतिकारी होने पर उसमें राग द्वेष का न करना।
५-श्रोत्रेन्द्रिय (१३) के विषय शब्द के अनुकूल और प्रतिकूल होने से प्रीतिकारी और अनीतिकारी होने पर उसमें राग और द्वष का न करना।
६-गो (१४) आदि पशु नपुंसक तथा स्त्री से भिन्न अन्य स्थान में काम चेष्टा का न करना।
9-रागपूर्वक (१५) तथा प्रीतिके सहित खी सम्बन्धिनी (१६) कथा वार्ताका न करना।
-जिस भासन पर स्त्री बैठी हो उस स्थान पर दो घड़ी पर्यन्त ब्रह्म चारी पुरुष को नहीं बैठना चाहिये, ( इसी प्रकार से स्त्रीके विषय में जान लेना चाहिये)।
१-इनका संक्षिप्त वर्णन आगे किया जावेगा ॥२-विस्तार वाला ॥३-विस्तार के साथ ॥ ४-ग्रन्थके बढ़ जाने ॥५-स्पर्श करनेवालो इन्द्रिय अर्थात् त्वगिन्द्रिय ॥ ६-प्रीति को उत्पन्न करने वाले ॥ ७-विरुद्ध ॥ ८.-अप्रीति अर्थात् इष को उत्पन्न करने वाले ॥ ६-नासिका ॥१०-पूर्व अर्थ लिखा जाचुका है ॥ ११-जीभ ॥ १२-चक्ष आंख ॥ १३-कान ॥ १४-अब यहां से नव ब्रह्मचर्य गुलियों का कथन किया जाता है। १५-राग के साथ ॥ १६-स्त्री के विषय में ॥
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