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थीमन्त्रराजगुणकरुपमहोदधि ॥ ४-सम्यक्त व-मोहनीय कर्म ( १ ) के क्षय हो जाने के कारण सिद्धों को क्षायिक ( २) सम्यक्तव की प्राप्ति होती है।
-अक्षय स्थिति-श्रायुः कर्म ( ३ ) का क्षय होने से सिद्धों की सिद्ध धाम में अक्षय स्थिति होती है [४] ।
.६-अरूपित्व-सिद्ध रूप से रहित होते हैं, तात्पर्य यह है कि नामकर्म (५) का क्षय हो जाने से रूपादि (६ ) का तादात्म्य सम्बन्ध (७) सिद्धों में नहीं रहता है। ____-गुरु लघुत्व-गोत्र कर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध न तो गुरु होते हैं और न लघु होते हैं। अर्थात् उनका उच्च और नीच गोत्र नहीं होता है।
-वीर्य-अन्तरायकर्म (८) का क्षय होने से वीर्यान्तराय () के क्षय के कारण सिद्धको स्वाभाविक ही प्रात्मा का अनन्त बल हो जाता है।
(प्रश्न )-प्राचायके ३६ गण कौन से हैं ? . . ( उत्तर ):-इस विषय में प्राचार्यों ने कहा है कि-पंचिंदिय संवरणो, तह नवविह बंभचेर गत्ति धरो ॥ चउविह कसायमुक्को, इय अट्ठारस गोहिं संजुत्तो ॥१॥ पंचमहन्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो ॥ पंचसमिनोतिगुत्तो; छत्तीसगुणों गुरू माझ ॥ २ ॥ अर्थात् मेरा गुरू ( प्राचार्य ) पांचों इन्द्रियों के संवरण (१०) से युक्त, सब प्रकार के ब्रह्मचर्य की गुप्ति ( ११) को धारण करने वाला तथा चार प्रकारके कषाय से मुक्त ( १२ ) इस प्रकार अठा रह गुणों से युक्त, पांच महा व्रतों से युक्त, पांच प्रकार के प्राचार के पालन करने में समर्थ, पांच समितियों से युक्त तथा तीन गुप्तियों वाला, इस प्रकार से छत्तीस गणों से युक्त है ॥१॥ २ ॥ तात्पर्य यह है कि ऊपर कहे हुए छत्तीस
१-"मोहयति विवेकविकलं करोति प्राणितमिति मोहः” (मोहनीयम् ) इस ( मोहनीय कर्म) के अट्ठाईस भेद हैं; सो दूसरे ग्रन्थों से जान लेने चाहिये । २-शायिकभाव से उत्पन्न ॥ ३-आयुःकर्मके-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यश्चायु तथा नरकायु, ये चार भेद हैं। ४-सादि अनन्त स्थिति होने से अक्षयस्थिति कहलाती है। ५- नामकर्म के १०३ भेद ग्रंथान्तरों में प्रसिद्ध हैं। ६-आदि पद से रस, गन्ध वर्ण, और स्पर्श को जानना चाहिये ॥ ७-तत्स्वरूपत्व सम्बन्ध ॥ ८-अन्तराय कर्म के पांच भेद हैं ॥ १-बीयं ( बल ) में बाधा डालने वाला कर्म ।। १०-निग्रह, विषयोंसे रोकना ।। ११-रक्षा ।। १२-छूटा हुआ रहित ।
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