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पञ्चम परिच्छेद ॥
(१७७)
४- वचनातिशय-भगवान की बाली संस्कारवत्य आदि गुणों से यक्त होती है (१); इस लिये मनुष्य, तिर्यक और देव उसके अनुयायी होते हैं (२); अर्थात् वे इस प्रकार से संस्कार को प्राप्त हो जाते हैं कि सब ही भव्य जीव अपनी २ भाषा के अनुसार उसके अर्थ को समझ जाते हैं।
उक्त आठ प्रातिहार्य तथा चार मूलातिशय मिलाकर अरिहन्त के बारह गुण माने जाते हैं।
( प्रश्न )-सिद्ध के पाठ गुण कौन से हैं ?
( उत्तर ) ज्ञान, दर्शन, अव्याबाध, सम्यक्त व, अक्षय स्थिति, अरूपित्व, अगुरुनघुत्व, तथा वीर्य, ये आठ गुण सिद्ध के हैं।
( प्रश्न )-कृपया इनका पृथक् २ वर्णन कीजिये?.. ( उत्तर )-इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:
१- ज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्म (३) के दाय हो जाने के कारण ज्ञान की उत्पत्ति होने से उसके प्रभाव से सिद्ध लोकालोक के स्वरूप को अच्छे प्रकार से जानते हैं।
२- दर्शन-दर्शनावरणीय कर्म ( ४ ) का क्षय होने से केवल दर्शन की उत्पत्ति होने के कारण उनके योग से लोकालोक के स्वरूप को सिद्ध अच्छे प्रकार से देखते हैं ?
३-अध्यावाध-सिद्ध सब प्रकार की बाधा (पीहा ) से रहित होते हैं; अर्थात् वेदनीय कर्म (३) का क्षय हो जाने से उनको नैरुपाधिक [६] अनन्त सुख की प्राप्ति होती है, उम सुख की किसी ( राजसुख श्रादि ) सुख से तुलना नहीं की जा सकती है तथा उक्त सुख अनिर्वचनीय ( 9 ) होता है।
१- वाणी में संस्कारवत्व आदि पैंतीस गुण होते हैं ॥२-श्री हेमचन्द्राचार्य जो ने अभिधान चिन्तामणि में कहा है कि"वाणी वृतिर्थक सुरलोकभाषा, संवादिनी योजनगामिनी च ॥ अर्थात् भगवान् की वाणी योजन तक पहुंचती है तथा मनध्य तिर्यक् और देवलोक के सब प्राणी उसे अपनी भाषा समझते हैं ॥ ३-ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद हैं -मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यायशानावरणीय और केवल ज्ञानाचरणीय ॥ ४-दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेद हैं, उनका वर्णन अन्य ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ॥५-वेदनीय कर्म दो प्रकार का है-शातवेदनीय तथा अशात वेदनीय ॥६-उपाधि रहिन ॥ ७-ज कहने योग्य; अवर्णनीय ॥
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