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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ यरूप चार गुण और हैं, जिन के नाम ये हैं-अपायापगमातिशय (१), ज्ञानातिशय (२), पूजातिशय (३), और वचनातिशय (४', इन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
१-अपायापगमातिशय-इसके दो भेद हैं स्वाश्रय (५) और पराश्रय [६] इनमें से स्वाश्रय अपायापगमातिशय के दो भेद हैं। द्रव्यविषयक अपायापगमातिशय तथा भाव विषयक अपायापगमातिशय, उनमें से द्रव्यसे जो अपायों ( उपद्रवों ) का अतिशय ( अत्यन्त ) अपगम ( नाश ) होना है उसको द्रव्य विषयक अपायापगमातिशय कहते हैं तथा भाव से अन्तराय आदि अठारह (७) अपायों का जो अत्यन्त अपगम (८) होना है उसको भावविषयक अपा. यापगमातिशय कहते हैं।
पराश्रय अपायापगमातिशय वह कहलाता है कि जहां भगवान् विहार करते हैं वहां चारों ओर सवासौ योजन तक प्रायः रोग, वैर, उपद्रव, म. हामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, स्वसैन्यभय () तथा परसैन्यभय (९०) नहीं होते हैं।
२-ज्ञानातिशय-भगवान् केवल ज्ञान के द्वारा सब प्रकार से 'लोकालोक (१९) के स्वरूप को जानते हैं तथा देखते हैं, तात्पर्य यह है कि-किसी प्रकार से कोई वस्तु भगवान् से अज्ञात नहीं रहती है, इस लिये भगवान् में ज्ञानातिशय गुण माना जाता है।
३-पूजातिशय-राजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, भवनपति देव, व्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव तथा वैमानिक देव प्रादि जगत्य वासी (१२) भव्य जीव भगवान की पूजा करनेकी अभिलाषा करते हैं, तात्पर्य यह है कि भगवान सर्व पूज्य हैं। अतः उनमें पूजातिशय गुण माना जाता है।
१-हानिकारक पदार्थों के नाश की अधिकता ॥ २-ज्ञान की अधिकता ।। सपना की अधिकता ॥४-वचन की अधिकता ॥५-स्वाधीन ॥ ६-पराधीन ॥ ७नाराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रति. जन भय, शोक, जुगुप्ता, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और नये अठारह अपाय हैं ॥ ८-नाश ॥ 8-अपनी सेना से भय ॥ १०-दूसरे की सेनासे
१५-लोक और अलोक ॥ १२-तीनों जगत् में निवास करने वाले ॥
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