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पञ्चम परिच्छेद |
(१५७१
जो योग्य हैं; उन अर्हतों को (१) द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो ।
( ख ) अथवा - " रह” अर्थात् एकान्त देश तथा “अन्त” अर्थात् गिरि गुफा आदि का मध्य भाग; जिनकी दृष्टि में गुप्त रूप नहीं है अर्थात् जो प्रति गुप्तरूप भी वस्तु समूह के ज्ञाता हैं; उनको अरहंत कहते हैं, उन अरहन्तों को द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो ।
( ग ) अथवा - "रह अर्थात् रथ ( आदि रूप परिग्रह ) तथा “अन्त” अर्थात् विनाश का कारण ( जरा आदि अवस्था ) जिनके नहीं हैं उनको अरहन्त कहते हैं; उन अरहन्तों को द्रव्य और भावपूर्वक नमस्कार हो ।
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(घ) अथवा "अरहंताणं” इस प्राकृत पदका संस्कृत में “अरहयद्भ्यः " भी हो सकता है, उसका अर्थ यह होगा कि - प्रकृष्ट रागादि के कारण भूत मनोज्ञ विषयोंका सम्पर्क होनेपर भी जो अपने वीतरागस्त्र स्वभाव का परि त्याग नहीं करते हैं; उनको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो (२) ।
दूसरा पाठ जो " णमो अरिहंताणं” दीखता है; उसका संक्षिप्त अर्थ यह है कि:
क) - संसार रूप गहन वन में अनेक दुःखोंके देनेवाले मोहादि रूप शत्रुओं का हनन करने वाले जो जिन देव हैं उनको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो |
(ख) सूर्य मण्डल का प्राच्छादन करने वाले मेयके समान ज्ञानादि गुणोंका आच्छादन करनेवाले जो धाति कर्म रूप रज हैं; तद्रूप शत्रु व नाश करनेवाले जिन देवको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो ।
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( ग ) आठ कर्मरूप शत्रुओं के नाश करनेवाले जिन भगवान्को द्रव्य
१- कहा भी है कि- "अरहंत वंदण नसणाइ, अरहंति पू असक्कारं ॥ सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण तुच्चति ॥ १ ॥ अर्थात् वन्दना और नमस्कारादि के योग्य होने से पूजा और सत्कार के योग्य होनेसे तथा सिद्धिगमनके योग्य होनेसे ( जिन भगवान् ) अर्हद कहे जाते हैं ॥ १ ॥
२- कहा भी है कि- "थुइवंदणमरहंता, अमरिंद नरिंद पूयमरहंता ॥ सामयसुहमरहंता, अरहंता हुतुमे सरणं ॥ १ ॥ अर्थात् स्तुति और वन्दनके योग्य, अमरेन्द्र और नरेन्द्रों से पूजा के योग्य, एवं शाश्वत सुखके योग्य जो अरहंत हैं; वे मुझे शरण प्रदान करें |
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