________________
(१५६)
श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ और भाव के सङ्कोचन का (१) द्योतक (२) है, कहा भी है कि-"नेवाइयं पयं दव्वभाव सडोयण पयत्यो” अर्थात नैपातिक पद द्रव्य और भाव के सङ्कोचन को प्रकट करता है, इस लिये “नमः" इस नैपातिक पद से कर, (३) शिर और चरण प्रादि को ग्रहण, कम्पन (४) और चलन (५) आदि रूप चेष्टा के निग्रह (६) के द्वारा द्रव्य सङ्कोचपूर्वक प्रणिधानरूप (७) नम. स्कार जाना जाता है तथा विशुद्ध मन के नियोगरूप भाव सङ्कोच के द्वाग प्रणिधानरूप अर्थ जाना जाता है, तात्पर्य यह है कि-"नमः” इस पद से द्रव्य और भाव के सहित नमस्कार करना द्योतित (८) होता है। । ( प्रश्न ) "णमो अरिहन्ताणं” इस पद के स्थान में विभिन्न ग्रन्थों में तीन प्रकार के पाठ देखे जाते हैं, प्रथम-"णमो अरहन्ताणं” ऐसा पाठ मि. लता है। दूसरा-“मो अरिहन्ताणं ऐसा पाठ दीखता है तथा तीसरा "णमो अरुहन्ताणं ऐसा पाठ दीखता है, तो इन तीनों प्रकार के पाठों का एक ही अर्थ है अथवा पाठभेद से इनका अर्थ भी भिन्न २ होता है ? ॥ - (उत्तर)-नमस्कार्य (९) के एक होने पर भी तत्सम्बन्धी गुणों की अपेक्षा उक्त तीन प्रकार के पाठ मिलते हैं तथा गुणवर्णनापेक्षा (१०) से ही उक्त तीनों पाठों का अर्थ भी भिन्न २ होता है। - (प्रश्न ) गुणवर्णनापेक्षासे उक्त तीनों पदों का क्या अर्थ है ?
( उत्तर )-गुणवर्णनकी अपेक्षा उक्त तीनों पदों का अर्थ बहुत ही वि. स्तृत तथा गूढ़ है, अतः संक्षेप में उक्त पदों का अर्थ दिखलाया जाता है:
प्रथम पाठ "णमो अरहंताणं" है; उसका संक्षिप्त नर्थ यह है कि( क ) सुरवर निर्मित अशोकादिठ प्रा महा प्रातिहार्य रूप (१९) पूजा के
: १-संक्षेप ॥२-प्रकाशक ॥ ३-हाथ ॥ ४-कांपना ॥ ५-चलना ॥६-रोकना॥ ७-नमन ॥ ८-प्रकट, विदित ॥ ६-नमस्कार करने के योग्य ॥ १०-गुणों के वर्णन की अपेक्षा ॥११-अशोकादिआठमहाप्रतिहार्य ये हैं-अशोक वृक्ष, सुर पुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि चामर, आसन, भामण्डल, दुन्दुभि और छत्र । कहा भी है कि-"अशोक वृक्षः सुर पुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरभासनश्च॥ भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्र सत्प्रातिहा. र्याणि जिनेश्वरस्य ॥१॥
Aho! Shrutgyanam