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चतुर्थ परिच्छेद । ____३१-णामो जिणाणं जायमाणं (जावयाणं ) (१) न य पूई न सोणियं ए ए णं सव्ववाई (२) एणं वणं मा पच्चड मा दुक्खउ मा फहउ (ों (३) ठः ठः स्वाहा ॥ इस मन्त्र से रक्षा (४) को अभिमन्त्रित कर व्रण (५) श्रादिमें लगाना चाहिये, खड्ग आदि की चोट लगने पर तो घृत अथवा रक्षा को अभिमन्त्रित कर लगाना चाहिये, ऐसा करने से व्रण और चोट की पीड़ा निवृत्त हो जाती है तथा दुष्ट व्रण भी भर जाता है (६)॥
यह चौथा परिच्छेद समाप्त हुभा ॥
१-"जावयाणं" यही पाठ ठीक प्रतीत होता है ॥२-“वाएण" यही पाठ ठीक प्रतीत होता है ॥ ३--"ओं" पद के होने वा न होने में सन्देह है ॥४-राख, भस्मा। ५-घाव ॥६-अच्छा हो जाता है।
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