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________________ ( १४८ ) श्री मन्त्र राजगुण कल्पमहोदधि ॥ ( उस वस्त्र को ) उढ़ा देवे तो ( ज्वरात का ) ज्वर उतर जाता है, जबतक जप करे तब तक धूप देता रहे (९), परन्तु नवीन ज्वर में इस कार्य को नहीं करना चाहिये, ( यह मन्त्र ) पूर्वोक्त दोष ( ज्वर दोष ) का नाशक है (२) ॥ 9- नों ह्रीं णमो अरिहंताणं, श्रीं ह्रीं णमो सिद्धाणं, प्रों हों रामो प्रायरियाणं, नों ह्रीं णमो उवज्झायाणं, श्रीं ह्रीं ग्रामो लोए सव्वसाहूणं, इन पैंतालीस अक्षर की विद्या का स्मरण इस प्रकार करना चाहिये कि ( स्मरण करते समय ) अपने को भी सुनाई न दे (३), दुष्ट और चौर आदि के संकट में तथा महापत्ति के स्थान में इसका स्मरण करना चाहिये ) तथा शान्ति और जल वृष्टि के लिये इसको उपाश्रय में गुणना [४] चाहिये ॥ ८- ह्रीं णमो भगवओो अरिहंत सिद्ध छायरिय उवज्झाय सव्वसाहूय सव्वधम्म तित्थयराणं, प्रों णमो भगवईए सुय देवयाए, न णमो भगवईए संतिदेवया, सव्वष्पवयण देवयाणं, दसराहं दिसापालाणं पंचराहं लोग पालाण, नों ह्रीं अरिहंत देवं नमः ॥ इस विद्याका १०८ बार जप करना चाहिये, यह पठित सिद्धा [५] है, तथा वाद; व्याख्यान और अन्य कार्यों में सिद्धि तथा जय को देती है, इस मन्त्र से सात वार अभिमन्त्रित वस्त्र में गांठ बांधनी चाहिये, ऐसा करने से मार्ग में चोर भय नहीं होता है तथा दूसरे व्याल [६] आदि भी दूर भाग जाते हैं ॥ - णमो अरिहंताणं, नों णमो सिद्धाणं, न रामो प्रायरियाणं, झों गामो उवज्झायाण ं, झोंगमा लोए सव्व साहू, श्रीं ह्रां ह्रीं हृ [७] ह्रौं ह १- धूप देता रहे ॥ २ - पूर्वोक्त " नवकारमन्त्रसङ्ग्रह ” में यह विधि लिखी है. कि - " इस मन्त्र का १०८ बार जप करके एक कोरी चादर के कोण को मसलता जावे, पीछे उसमें गांठ बांध देवे, पीछे उस चादर का गांठ का भाग ज्वरार्त्त के मस्तक की तरफ रख उस को ओढ़ा देवे, ऐसा करने से सब प्रकार के ज्वर नष्ट हो जाते हैं ॥ ३- तात्पर्य यह है कि मन ही मन में जपना चाहिये ॥ ४- जपना ॥ ५- पठनमात्र से सिद्ध ॥ ६ - सर्प अथवा सिंह ॥ ७- पूर्वोक्त “ नवकारमन्त्रसङ् " पुस्तक में "हूं हौं” इन दोनों पदों के स्थान में " हों" यही एक पद है ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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