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चतुर्थ परिच्छेद |
( १४६ ) स्वाहा ॥ यह मन्त्र सर्व कार्य साधक है, स्वच्छ जल प्रादि का उपयोग करना चाहिये (९) ।।
१०- प्रथम पदका (२) ब्रह्मरन्ध्र में, दूसरे पदका (३) मस्तक में, तीसरे पदका (४) दक्षिण कर्ण में, चौथे पदका (५) अवटु (६) में, पांचवें पदका (9) बाम कर्ण में तथा चूला पदोंका (८) दक्षिण संख्यासे लेकर विदिशाओं में (९) इस प्रकार से पद्मावर्त जाप (१०) करना चाहिये, यह मन्त्र की स्थि रता का कारण होनेसे प्रत्यन्त ही कर्मों का नाशक है (११) ॥
११ - "पढमं हवइ मंगलं” इसको अपने मस्तक के ऊपर वज्रमयो शिला जाने, “रामो अरिहंतारा" इसको अपने अंगुष्ठों में जाने, "णमो सिद्धारा " इसको अपनी तर्जनियों में (१२) जाने, "रामो आयरियाण” इसको अपनी मध्यमा (१३) में जाने, " णमो उवज्झायाण" इसको अपनी अनामिकानों (१४) में जाने " णमो लोए सव्व साहूण” इसको अपनी कनिष्ठिकाओं (१५) में जाने, “एसोपंचणमोक्कारो” इसको वज्रमय प्राकार जाने "सव्वपावप्पणासणी" इसको जलपूर्ण खातिका (१६) जाने, यह मन्त्र अत्यन्त सफलता कारक (१७) है ॥ १२- हां ह्रीं ह्रीं ह्र. ) (१८) हूः असि श्रा उसा स्वाहा (१९) ॥ श्रीं ह्रीं
१- मूल में संस्कृत पाठ सन्दिग्ध है, तात्पर्य तो यही है कि-स्वच्छ जल को अभिमन्त्रित कर उस का प्रक्षेपण ( सिञ्चन ) और पान करना चाहिये, किन्तु पूर्वोक्त “नवकारमन्त्र सङ्ग्रह” नामक पुस्तक में तो केवल मन्त्र जपन का ही विधान है । २ - " णमो अरिहन्ताणं" इस पद का ॥ ३- " णमो सिद्धाणं" इस पद का ॥ ४“ णमो आयरियाणं" इस पदका ॥ ५-" णमो उवज्झायाणं " इस पदका ॥ ६-गर्दन और शिर की सन्धि के पिछले भाग का नाम अवटु है ॥ ७- " णमो लोए सव्व साहूणं" इस पद का ॥ ८-" एसो पञ्च णमोक्कारो” यहां से लेकर समाप्ति पर्यन्त चारों पदों का ॥ ६- दक्षिणसंख्या की आदि में करके सव विदिशाओं में # १० - पद्मावर्त्तन के समान जप ॥ ११- तात्पर्य यह है कि इस मन्त्र का जप करने से अत्यन्त ही मनकी स्थिरता होती है तथा मन की स्थिरता होने के कारण कर्मों का नाश हो जाता है ॥ १२- अंगूठे के पास की अंगुलि को तर्जनी कहते हैं ।। १३ – बीच की अंगुलियों ॥ १४-छोटी अंगुलिके पास की अंगुलियों ॥ १५- सबसे छोटी अंगुलियों ॥ १६-खाई ॥ १७- मूल में पाठ सन्दिग्ध है ॥ १८- " हौं” की अपेक्षा "हूं" पाठ ही ठीक प्रतीत होता है ॥ १६- पूर्वोक्त " नवकार मन्त्रसङ्ग्रह " पुस्तक में "ओं ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रीं ह्रः अ-सिआ-उ-ला खाहा " ऐसा मन्त्र है ।
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