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तृतीय परिच्छेद ॥
(१३३) मित्र ! दूसरे प्रयत्न से क्या प्रयोजन है; किन्तु परमानन्द को प्राप्त होने पर तुझ में ही अविकल (१) फल स्थित है, इसीलिये तू उसी में मनको प्रसन्न रख ॥ ५२ ॥
उस सत्य मनके होनेपर अरति (३) और रति (३) की देनेवाली वस्तु दूर से ही ग्रहण की जाती है, किन्तु मनके समीप न होनेपर कुछ भी नहीं प्राप्त होता है, इस तत्त्व को जानने वाले पुरुषों की इच्छा भला उस सद्गुरूपासना (४) में क्यों नहीं होगी जो कि उन्मनीभाव (५) का कारण है ॥ ५३॥
उन २ उपायोंमें मूढ (६) हे भगवन् आत्मन् ! तू परमेश्वर तक से भी पर (9) उन २ भावों की अपेक्षा (6) कर उन २ भावोंके द्वारा तू मनको प्रसन्न करने के लिये क्यों परिश्रम करता है, अरे! तू थोड़ा भी प्रात्माको प्रसन्न कर कि जिससे सम्पत्तियां हों तथा परम तेज में भी तेरा प्रकृष्ट (8) साम्राज्य (१०) उत्पन्न हो ॥ ५४॥
यह तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
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१-इसलिये ॥२-पर्याप्त, परिपूर्ण ॥ ३-अप्रीति, द्वष॥ ४-प्राति राग ५-श्रेष्ठ गुरु की सेवा ६-उदासीन भाव ॥ ७-मूर्ख, अज्ञान ॥ ८-भिन्न ॥ १-इच्छा। १० उत्तम ॥ ११-चक्रवर्त्तित्व ॥
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