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श्रीमन्त्रराज गुण कल्पमहोदधि ।
कुण्डमें मग्न हुआ योगी अनुपम, (१) उत्कृष्ट (२) अमृत स्वाद का अनु भव करता है ॥ ४३ ॥
विमनस्क (३) के होनेपर रेचक, पूरक तथा कुम्भक के करने के अभ्याम के क्रमके विना भी विना प्रयत्न के ही वायु स्वयमेव नष्ट हो जाता है ॥४॥ चिरकाल तक प्रयत्न करने पर भी जिसका धारण नहीं किया जा सकता है वही पवन श्रमनस्क के होने पर उसी क्षण स्थिर हो जाता है ॥ ४५ ॥ अभ्यास के स्थिर हो जानेपर तथा निर्मल निष्कल तत्त्वके उदित (४) हो जानेपर योगी पुरुष श्वास का समूल उन्मूलन (५) कर मुक्त के समान मालूम होता है ॥ ४६ ॥
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जो जाग्रदवस्था (६) में भी ध्यानस्थ ( 9 ) होकर सोते हुए पुरुष के समान स्वस्थ रहता है तथा श्वास और उच्छ्वास (८) से रहित हो जाता है, वह मुक्ति सेवन से हीन नहीं रहने पाता है ॥ ४७ ॥
जगतीतल वर्ती (1) लोग - सदा जाग्रदवस्था (१०) वाले तथा स्वप्नावस्था (११) वाले होते हैं, परन्तु लय (ध्यान) में मग्न तत्वज्ञानी न तो जागते हैं और न सोते हैं ॥ ४८ ॥
स्वप्न में शून्यभाव ( १२ ) होता है तथा जागरण (१३) में विषयों का ग्रहण होता है, इन दोनों का अतिक्रमण (१४) कर आनन्दमय तत्व त्रस्थित है ॥ ४९ ॥
कर्म भी दुःख के लिये हैं तथा निष्कर्मत्व (१५) तो सुख के लिये प्रसिद्ध ही है, इस मोक्ष को सुगमतया (१६) देनेवाले निष्कर्मत्व में प्रयत्न क्यों नहीं करना चाहिये || ५० ॥
मोक्ष हो, अथवा न हो, किन्तु परमानन्द का भोग तो होता ही है कि जिसके होनेपर सब सुख किञ्चित् रूप (१७) में मालूम होते हैं ॥ ५१ ॥ उक्त सुख के आगे मधु भी मधुर नहीं है, चन्द्रमा को कान्ति भी शीतल नहीं है, अमृत नाम मात्रका है, सुधा निष्फल और व्यर्थ रूप है, अतः (१८) हे
१-उपमा रहित ॥ २-ऊंचे ॥ ३- मनोऽप्रवृत्ति ॥ ४- उदय युक्त ॥ ५-नाश ॥ ६- जागते हुए की दशा ॥ ७-ध्यान में स्थित ॥ ८- ऊध्वंश्वास ॥ ६-संसार में स्थित ॥ २० - जाग्रद्दशा ॥ ११ - स्वप्नदशा ॥ १२- शून्यता ॥ १३- जागना ॥ १४-उल्लंघन ॥ १५॥ १६- कर्मसे रहित होना ॥ १७- सहज में ॥ १८- तुच्छरूप ॥
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