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तृतीय परिछेद ॥
(१३१) जब आत्मा मनको प्रेरणा नहीं करता है तथा मन इन्द्रियोंको प्रेरणा नहीं करता है तब दोनोंसे भ्रष्ट होकर मन स्वयं ही विनाम को प्राप्त होता है ॥ ३५॥
सब ओरसे मनके नष्ट हो जाने पर तथा सकल तत्व के सर्व प्रकार से विलीन हो जानेपर वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक के समान निष्कल (९) तत्त्व प्रकट हो जाता है ॥ ३६ ।
यह प्रकाशमान (२) तत्त्व स्वेदन (३) और मर्दन (४) के विना भी अङ्ग की मृदुता (५) का कारण है तथा विना तेल के चिकना करने वाला है ॥ ३ ॥
उत्पन्न होती हुई नस्कता (६) के द्वारा मन रूपी शल्य (७) का नाश होने पर शरीर छत्र के समान स्तन्यता (८) को छोड़कर शिथिल हो जाता है।॥ ३८ ॥
निरन्तर क्लेश देनेवाले शल्यरूपी अन्तः करण को शल्य रहित करनेके लिये अमनस्कता के अतिरिक्त और कोई औषध नहीं है ॥ ३९ ॥ .
अविद्या (अज्ञान) केलेके वृक्षके समान है, चञ्चः इन्द्रियां ही उसके पत्र हैं तथा मन उसका मूल है, वह ( अविद्यारूप कदली) अमनस्वरूप (द) फल के दीखनेपर सर्वथा नष्ट हो जाती है ॥ ४० ॥
अति चञ्चल, अति सूक्ष्म तथा वेगवत्ता (१०) के कारण अत्यन्त दुर्लभ चित्त का निरन्तर प्रमाद को छोड़कर अमनस्करूपी शलाका (११) से भेदन करना चाहिये ॥४१॥
अमनस्क के उदय के समय योगी शरीर को विश्लिष्ट (१२) के समान, प्लष्ट (१३) के समान, उड्डीन (१४, के समान तथा प्रलीन (१३) के समान असद्रप (१६) जानता है ॥ ४२ ॥
मदोन्मत्त (१७) इन्द्रियरूप सपों से रहित, विमनस्क रूप नवीन अमत
१-कला रहित, निर्विभाग ॥ २-प्रकाश युक्त ॥ ३- जीना उत्पत्र करना ॥४मलना ॥५-कोमलता ॥६-अनीहा, मनकी अनासक्ति ॥ ७-कांटा चुभनेवाला पदार्थ।। ८-चञ्चलता, अमृदुता ॥-अनीह रूप ॥१०-वंगवालापन ॥ ११-सलाई ॥ १२-वियुक्त ॥ १३-दग्ध ॥ १४-उड़े हुए ॥ १५-निमग्न ॥ १६-अविद्यमान रूप ॥ १७-मद से. उन्मत्त॥
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